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२. इसी आधार पर पर के कर्तृत्व का अहंकार और पर से भयभीत होने का भाव नष्ट होकर लौकिक सुख-शान्ति प्राप्त हो जाती है। ३. इसी आधार पर पर के कर्तृत्व संबंधी विकल्पों के शमन से आत्महितकारी कार्यों के लिए समय भी सहजरूप में उपलब्ध हो जाता है। ४. प्रत्येक द्रव्य की स्वतंत्रता का भान होने पर स्वावलम्बन का भाव जागृत होता है। ५. पर पदार्थों के सहयोग की आकांक्षा से होने वाली व्यग्रता का अभाव होकर सहज शान्त दशा प्रगट होती है। ६. इसी आधार पर स्वयंकृत अपराधों का कर्तृत्व दूसरों पर न थोपते हुए स्व-दोष-दर्शन और आत्म-निरीक्षण करने का भाव जागृत होता है। ७. निमित्त-उपादान का स्वरूप समझने से यह तथ्य अत्यन्त स्पष्टरूप से समझ में आ जाता है कि प्रत्येक पदार्थ स्वयं के परिणमन का ही कर्ता है। अन्य के परिणमन में तो वह मात्र निमित्त होता है, कर्ता-धर्ता कुछ भी नहीं है - इस समझ के बल पर मिथ्या कर्तृत्व का अनन्त भार उतर जाने के कारण जीवन निर्भार, निश्चिन्त हो जाता है। ८. कोई मेरा भला-बुरा कर सकता है - यह मिथ्यात्वमय परिणाम इसी समझ से नष्ट हो जाने के कारण जीवन सहज तत्त्वाभ्यासमय, सम्यक् रत्नत्रय-युक्त, आत्मानुभूति-सम्पन्न, निराकुल हो जाता है। इत्यादि लाभ ही लाभ इस प्रकरण को समझने से प्राप्त होते हैं। ०
- शान्ति विधायक मन्त्रअणु-अणु की सत्ता स्वतंत्र है, द्रव्यमात्र स्वाधीन सभी। सबकी सीमा न्यारी नहिं, आदान-प्रदान विधान कभी॥ सबको अपनी सीमा प्यारी, अपना घर ही प्यारा है। अरे विश्व का शान्ति विधायक, यह सिद्धांत निराला है। यही वस्तु की मर्यादा है, यही वस्तु की शान भी। इससे तड़क-तड़क गिर पड़ती, कर्मों की सन्तान भी। है स्वभाव यह सहज वस्तु का सदा अकेला एक है। यह ही उसकी सुन्दरता है, वह पर से निरपेक्ष है।
- उपादान-निमित्त/६७ -
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