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________________ की सूचक अवश्य है; वे इसके निमित्त तो हैं ही। इसप्रकार यह उपदेश भी सार्थक ही है। वास्तव में तो अपने लिए अपना त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा ही वास्तविक सत् है । उसके समागम अर्थात् सम्यक् श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र से ही सत्समागम का लाभ / आत्मानुभूतिमय अतीन्द्रिय आनन्द प्रगट होता है; अत: हमें उसके समागम का / उसमें ही लीनता का सतत प्रयास करना चाहिए । प्रश्न २३ : जब प्रत्येक कार्य उपादान और निमित्त – दोनों की उपस्थिति में होता है तो निमित्त जुटाने की व्यग्रता का, निमित्ताधीन दृष्टि रखने का निषेध क्यों किया जाता है ? मात्र उपादान का आश्रय लेने की बात क्यों की जाती है ? उत्तर : प्रत्येक कार्य उपादान और निमित्त दोनों की उपस्थिति में होने पर भी एकमात्र उपादान ही उस कार्यरूप से परिणमित होता है; निमित्त नहीं। निमित्त पर तो अनुकूल होने का मात्र आरोप आता है। कार्य की उत्पत्ति के पूर्व किसी पर आरोप करना सम्भव नहीं होने से निमित्त जुटाने की व्यग्रता का निषेध किया जाता है। इसके साथ ही निमित्त, उपादान से भिन्न पर ही होता है। पर की ओर दृष्टि करने से पराधीनता होती है । पराधीनता स्वयं दुःख और दुःख की कारण है। सुखार्थी के लिए तो एकमात्र स्वाधीनता ही श्रेयस्कर है; अत: निमित्ताधीन दृष्टि का निषेध किया जाता है। वास्तव में तो निमित्त की सत्ता निमित्ताधीन दृष्टि छोड़ने में ही सुरक्षित रहती है। निमित्त को कर्ता मानने वाला ही निमित्ताधीन दृष्टि रखता है। उसकी दृष्टि में निमित्त ही उपादानगत कार्य का कर्ता हो जाने से उपादान हो जाएगा; तब निमित्त की सत्ता कहाँ रहेगी ? इसप्रकार निमित्तरूप में निमित्त की सत्ता सुरक्षित रखने के लिए ही निमित्त जुटाने की व्यग्रता का, निमित्ताधीन दृष्टि रखने का निषेध किया जाता है। उत्पाद - व्यय - ध्रौव्यात्मक क्षणिक और त्रैकालिक शक्ति - संपन्न उपादान ही स्वयं स्वत: कार्यरूप से परिणमित होने के कारण कार्य की उत्पत्ति के लिए सदा उसका ही आश्रय लेने की बात की जाती है। प्रश्न २४:जब उपादानगत कार्य के समय निमित्त की उपस्थिति अनिवार्य तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २/६४
SR No.007197
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherA B Jain Yuva Federation
Publication Year2008
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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