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है; इसलिए द्रव्य-कर्म सर्वदा अपने कार्य को उत्पन्न नहीं करते हैं - यह सिद्ध हुआ।"
उपादानगत कार्य की उत्पत्ति के समय अनुकूल होने वाले अन्य परिणमन को निमित्त कहते हैं। कार्य पर्याय होने के कारण सदा एक समयवर्ती होता है; अत: उसके प्रति अनुकूलता भी उसके ही समान एक समयवर्ती होती है।
इसप्रकार वास्तव में निमित्त-उपादान संबंध या निमित्त-नैमित्तिक संबंध एक समयवर्ती विभिन्न पर्यायों में ही घटित होता है। द्रव्य, गुण या भिन्न समयवर्ती पर्यायों में इन्हें घटित करना अत्यन्त औपचारिक व्यवहार समझना चाहिए; वास्तविक नहीं। वास्तव में उपादानगत कार्य की उत्पत्ति के पूर्व किसी को उसका निमित्त कहना सम्भव ही नहीं है। प्रश्न २२ : यदि निमित्त-उपादान या निमित्त-नैमित्तिक संबंध मात्र एक समयवर्ती होता है तो बुरे निमित्तों से हटकर, सद्-निमित्तों में रहना चाहिए - इस उपदेश की क्या सार्थकता है ? । उत्तर :वास्तव में तो एक-एक समयवर्ती प्रत्येक कार्य पाँच समवायात्मक निमित्त-उपादान की सन्निधि में ही उत्पन्न होने के कारण उसका निमित्त सुनिश्चित ही है; अत: बुरे निमित्तों से हटकर, सद्-निमित्तों में रहना चाहिए - यह जिनवाणी का स्थूल, औपचारिक कथन है। वास्तव में तो किसी को 'निमित्त' - यह नाम कार्योत्पत्ति के समय ही मिलता है; तथापि कुछ पदार्थ अधिकांशतया किसी विशिष्ट प्रकार के कार्य के निमित्त होने के कारण उन्हें सामान्यरूप में सदा-सदा के लिए ही उस कार्य के निमित्तरूप में स्वीकृत कर लिया जाता है। . __ जैसे सच्चे देव-शास्त्र-गुरु आदि सम्यक् रत्नत्रय के निमित्त कहलाते हैं; चोर, जार (गुप्तप्रेमी), शराबी, वेश्या आदि दुर्व्यसनों के निमित्त कहलाते हैं। इसी आधार पर यह कहा जाता है कि बुरे निमित्तों से हटकर, सद्-निमित्तों में रहना चाहिए। इसमें यद्यपि उनका निमित्त' यह नाम तो हममें सद्कार्य होने पर ही होता है; तथापि उनके समागम में रहने की रुचि हमारे वर्तमान परिणामों की निर्मलता और उज्ज्वल भविष्य
उपादान-निमित्त/६३ -