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जीवो ण करेदि घडं, णेव पडं णेव सेसगे दव्वे । जोगुवओगा उप्पादगा य तेसिं हवदि कत्ता ।। १०० ।। यदि आत्मा परद्रव्यों को करे तो वह नियम से तन्मय अर्थात् परद्रव्यमय हो जाए; परंतु तन्मय नहीं है; इसलिए वह उनका (उपादान) कर्ता नहीं है। जीव घट को नहीं करता, पट को नहीं करता, शेष किसी द्रव्य को नहीं करता है; परन्तु जीव के योग और उपयोग उनके उत्पादक हैं; वे दोनों उनके (निमित्त) कर्ता हैं। "
आचार्य अमृतचंद्र स्वामी ने इनकी आत्मख्याति टीका में इनके भाव को जिसप्रकार स्पष्ट किया है; उसका हिन्दी अनुवाद इसप्रकार हैं -
“यदि निश्चय से यह आत्मा परद्रव्यरूप कर्म को करे तो अन्य किसी प्रकार से परिणाम-परिणामी भाव न बन सकने से वह (आत्मा) नियम से तन्मय (परद्रव्यमय) हो जाए; परन्तु वह तन्मय नहीं है; क्योंकि कोई द्रव्य अन्य द्रव्यमय हो जाए तो उस द्रव्य के नाश की आपत्ति आ जाए; इसलिए आत्मा व्याप्य-व्यापक भाव से परद्रव्य स्वरूप कर्म का कर्ता नहीं है। वास्तव में जो घटादि या क्रोधादिमय परद्रव्य स्वरूप कर्म हैं, उन्हें आत्मा व्याप्य-व्यापक भाव से नहीं करता है; क्योंकि यदि ऐसा करे तो तन्मयता का प्रसंग आ जाएगा। वह निमित्त-नैमित्तिक भाव से भी उन्हें नहीं करता है; क्योंकि यदि ऐसा करे तो नित्य-कर्तृत्व का प्रसंग आ जाएगा; अतः अनित्य योग-उपयोग ही निमित्तरूप से उनके कर्ता हैं। अपने विकल्प को और अपने व्यापार को कदाचित् अज्ञान से करने के कारण योग-उपयोग का कर्ता आत्मा भले हो; परन्तु परद्रव्य स्वरूप कर्म का कर्ता तो वह कभी भी नहीं है। "
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निमित्त उपादान या निमित्त - नैमित्तिक संबंध की क्षणिकता को कषाय पाहुड में आचार्य यतिवृषभदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं.पागभावो कारणं । पागभावस्स विणासो वि दव्वखेत्तकालभवावेक्खाए जायदे; तदो ण सव्वद्धं दव्वकम्माहं सगफलं कुणंति त्ति सिद्धम् ।
... प्रागभाव का विनाश हुए बिना कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती है। प्रागभाव का विनाश द्रव्य, क्षेत्र, काल और भव की अपेक्षा लेकर होता तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २ / ६२
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