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परिणत जीव-पुद्गलों की गति या स्थिति में स्वयं निमित्त होते हैं; जीवपुद्गल इन्हें प्रेरित नहीं करते हैं। इनकी प्रवृत्ति पराधीन नहीं है।
प्रश्न : ‘बाह्य द्रव्यादि के निमित्त से परिणामिओं के परिणाम उपलब्ध होते हैं' - यह इस स्वातन्त्र्य के मानने पर विरोध को प्राप्त होता है?
उत्तर : यह कोई दोष नहीं है; क्योंकि बाह्य वस्तुएं निमित्तमात्र होती हैं, परिणामक नहीं।" __आचार्य वीरसेनस्वामी षट्खण्डागम की धवला टीका में इसे इसप्रकार व्यक्त करते हैं -
"तम्हा कम्हि वि अंतरंगकारणादो चेव कज्जुप्पत्ती होदि त्ति णिच्छओ कायव्वो - इसलिए कहीं भी अंतरंग कारण से ही कार्य की उत्पत्ति होती है - ऐसा निश्चय करना चाहिए।" ___इत्यादि प्रकार से आगम के अनेकानेक प्रमाणों और उदाहरणों से स्पष्ट है कि निमित्त अपने में अपना कार्य करता होने पर भी उपादानगत कार्य में कुछ भी नहीं करता है। प्रश्न २० : यदि निमित्त उपादानगत कार्य में कुछ भी नहीं करता है तो कुछ निमित्तों का नाम प्रेरक निमित्त' क्यों पड़ा ? उत्तर : उपादानगत कार्य में कुछ भी करने की दृष्टि से तो सभी निमित्त एक समान धर्मास्तिकायवत उदासीन ही हैं; परन्तु निमित्त-निमित्त की पारस्परिक विशेषता को स्पष्ट करने के लिए निमित्त के भेद किए गए हैं। यद्यपि प्रेरक शब्द का अर्थ व्याकरण में प्रेरणा देने वाला होता है; तथापि कारण-कार्य मीमांसा में निमित्त के सन्दर्भ में प्रेरक का अर्थ इच्छावान, क्रियावान द्रव्य है। जो द्रव्य मात्र इच्छावान हैं, जो द्रव्य मात्र क्रियावान हैं अथवा जो द्रव्य इच्छावान और क्रियावान दोनों विशेषताओं से सहित हैं; उन पर कोई कार्य होते समय अनुकूल होने का आरोप आने पर वे प्रेरक निमित्त कहलाते हैं।
जैसे एक विद्यार्थी के अध्ययनरूप कार्य के समय उसकी अशिक्षित माँ मात्र इच्छावान होने से, अध्यापक का दण्ड मात्र क्रियावान होने से
- तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २/६०