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________________ नियमरूप से निमित्त भी नहीं है । "" इसप्रकार परद्रव्य का दोष देखना मिथ्याभाव है।' निमित्त न तो उपादान में बलात् कुछ करता है और न ही उपादान किन्हीं निमित्तों को बलात लाता या मिलाता है। दोनों का सहज ही संबंध होता है। निमित्तनैमित्तिक संबंध की सहजता वे वहीं इसप्रकार स्पष्ट करते हैं "यदि कर्म स्वयं कर्ता होकर उद्यम से जीव के स्वभाव का घात करे, बाह्य सामग्री को मिलाए, तब तो कर्म के चेतनपना भी चाहिए और बलवानपना भी चाहिए; सो तो है नहीं; सहज ही निमित्त - नैमित्तिक संबंध है। जब उन कर्मों का उदयकाल हो, उस काल में आत्मा स्वयं ही स्वभावरूप परिणमन नहीं करता है, विभावरूप परिणमन करता है तथा जो अन्य द्रव्य हैं, वे वैसे ही संबंधरूप होकर परिणमित होते हैं। जिसप्रकार सूर्य के उदयकाल में चकवा चकविओं का संयोग होता है। वहाँ रात्रि में किसी ने उन्हें द्वेष - बुद्धि पूर्वक बलजवरी से पृथक् नहीं किया है, दिन में किसी ने करुणा बुद्धि से लाकर मिलाया नहीं है। सूर्यास्त का निमित्त पाकर वे स्वयं ही बिछुड़ते हैं और सूर्योदय का निमित्त पाकर स्वयं ही मिलते हैं। ऐसा ही निमित्त नैमित्तिक बन रहा है; उसीप्रकार कर्म का भी निमित्त-नैमित्तिक भाव जानना । " उपादानगत कार्य में निमित्त के अकर्तृत्व को भट्ट अकलंक स्वामी तत्त्वार्थराजवार्तिक में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “धर्माधर्माकाशपुद्गला : इति बहुवचनं स्वातन्त्र्यप्रतिपत्त्यर्थं द्रष्टव्यम् । किं पुनः स्वातन्त्र्यं ? धर्मादयो गत्याद्युपग्रहान् प्रति वर्तमानाः स्वयमेव तथा परिणमन्ते न परप्रत्ययाधीना तेषां प्रवृत्तिः इत्येतदत्र विवक्षितं स्वातन्त्र्यम् । ननु च बाह्यद्रव्यादिनिमित्तवशात् परिणामिनां परिणाम: उपलभ्यते, स च स्वातन्त्र्ये सति विरुध्यते इति ? नैष दोष:; बाह्यस्य निमित्तमात्रत्वात् । धर्माधर्माकाशपुद्गलाः - इसमें बहुवचन स्वातन्त्र्य की प्रतिपत्ति के लिए है। प्रश्न : वह स्वातन्त्र्य क्या है ? उत्तर : इनका यही स्वातन्त्र्य है कि ये स्वयं गति या स्थिति रूप से उपादान - निमित्त / ५९
SR No.007197
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherA B Jain Yuva Federation
Publication Year2008
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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