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________________ निमित्त के अकर्तृत्व को शंका-समाधान की शैली में स्पष्ट करते हैं । जिसका हिन्दी अनुवाद इसप्रकार है - "ऐसा स्वीकार करने पर तो बाह्य निमित्तों का निराकरण ही हो जाएगा? इसका उत्तर इसप्रकार है कि अन्य गुरु आदि या शत्रु आदि तो प्रकृत कार्य के उत्पादन या विध्वंसन में केवल निमित्त मात्र हैं। वास्तव में तो किसी कार्य के होने या बिगड़ने में उसकी योग्यता ही साक्षात् साधक होती है।" आचार्य अमृतचंद्रदेव पुरुषार्थसिद्धि उपाय ग्रन्थ में कर्म और जीव पर इसे इसप्रकार घटित करते हैं - - "जीवकृतं परिणामं, निमित्तमात्रं प्रपद्य पुनरन्ये । स्वयमेव परिणमन्तेऽत्र पुद्गलाः कर्मभावेन ॥ १२ ॥ परिणममानस्य चितश्चिदात्मकैः स्वयमपि स्वकैर्भावैः । भवति हि निमित्तमात्रं, पौद्गलिकं कर्म तस्यापि ॥ १३ ॥ जीवकृत परिणाम का निमित्तमात्र पाकर जीव से अन्य पृथक् पुद्गल स्कन्ध अपने आप ही ज्ञानावरण आदि कर्मरूप से परिणमित हो जाते हैं। रागादि भावरूप से स्वयं परिणमन करते हुए जीव को भी पौद्गलिक कर्म केवल निमित्तमात्र होते हैं। " पर के साथ कारकता के संबंध का निषेध करते हुए वे ही प्रवचनसार की १६वीं गाथा की तत्त्वप्रदीपिका टीका में लिखते हैं "अतो न निश्चयतः परेण सहात्मनः कारकत्वसंबंधोऽस्ति, यत: शुद्धात्मस्वभावलाभाय सामग्रीमार्गणव्यग्रतया परतंत्रैर्भूयते । इसलिए निश्चय से पर के साथ आत्मा के कारकता का कोई संबंध नहीं है; तथापि शुद्धात्म-स्वभावलाभ के लिए जीव न जाने क्यों सामग्री खोजने की व्यग्रता से परतंत्र होते हैं ?" इसीप्रकार का भाव जीव के विकृत परिणमन के संदर्भ में उन्होंने पंचास्तिकाय संग्रह ६२वीं गाथा की समयव्याख्या टीका में भी स्पष्ट किया है। आचार्यकल्प पण्डित टोडरमलजी मोक्ष-मार्ग-प्रकाशक ग्रन्थ में इसे इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "परद्रव्य कोई जबरन तो बिगाड़ता नहीं है, अपने भाव बिगड़ें तब वह भी बाह्य निमित्त है तथा इसके निमित्त बिना भी भाव बिगड़ते हैं, इसलिए तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २ / ५८ -
SR No.007197
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherA B Jain Yuva Federation
Publication Year2008
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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