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सम्भव नहीं होने से वास्तव में निमित्त-उपादान संबंध एकसमयवर्ती कार्य की उत्पत्ति के समय ही घटित होता है। कार्य सदा उपादान कारण के अनुरूप होता है तथा कार्य के अनुसार निमित्त कहा जाता है; परन्तु कार्य कभी भी निमित्तों के अनुसार नहीं होता है। इसप्रकार कार्य की उत्पत्ति में निमित्त की उपस्थिति का निषेध नहीं है; उपादान में निमित्त के कर्तृत्व का निषेध है।
निष्कर्ष यह है कि अपनी उपादानगत योग्यतानुसार कार्य होते समय .. निमित्त होता अवश्य है। वह उस समय भी अपने लिए उपादान होने के कारण अपने में अपना कार्य भी कर रहा है; परन्तु विवक्षित उपादानगत कार्य में वह कुछ भी हस्तक्षेप, सहयोग आदि नहीं करता है। प्रश्न १९:निमित्त-उपादानगत कार्य में कुछ भी नहीं करता है, इसे सप्रमाण उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए। उत्तर : एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ भी नहीं कर सकता है; इसे स्पष्ट करते हुए आचार्य कुन्दकुन्ददेव समयसार में लिखते हैं - "जो जम्हि गुणे दव्वे, सो अण्णम्हि दुण संकमदि दव्वे। . सो अण्णमसंकंतो कह तं परिणामए दव्वं ॥१०३॥
जो जिस गुण या द्रव्य में रहता है, वह उससे भिन्न अन्य द्रव्य में परिणमन को प्राप्त नहीं होता है। अन्यरूप से परिणमन को प्राप्त नहीं होता हुआ वह अन्य द्रव्य को कैसे परिणमित करा सकता है ?"
निमित्त, उपादानगत कार्य में कुछ भी नहीं करता है - इसे स्पष्ट करते हुए आचार्य पूज्यपाद स्वामी, इष्टोपदेश ग्रन्थ में लिखते हैं -
"नाज्ञो विज्ञत्वमायाति, विज्ञो नाज्ञत्वमृच्छति। . निमित्तमात्रमन्यस्तु, गतेधर्मास्तिकायवत् ॥३५॥
अज्ञ को उपदेश आदि निमित्तों द्वारा विज्ञ नहीं किया जा सकता है और न ही विज्ञ को अज्ञ कर सकते हैं। जैसे स्वयं चलते हुए जीवपुद्गलों की गति में धर्मास्तिकाय निमित्त होता है; उसीप्रकार परपदार्थ तो निमित्त मात्र हैं।" इसकी ही संस्कृत टीका में पण्डित आशाधरजी उपादानगत कार्य में
- उपादान-निमित्त/५७ -