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बोध होता है। जिससे उनमें इच्छानुसार परिवर्तन करने का भाव नष्ट होकर उन्हें सहज स्वीकार करने का भाव जागृत होता है। पर्यायमात्र से दृष्टि हटकर दृष्टि ध्रुव-स्वभाव पर केन्द्रित हो जाने से जीवन सहज सुखमय निश्चिन्त, निर्भारमय हो जाता है; यह ज्ञान कराने के लिए इस क्षणिक उपादान का कथन किया जाता है। ७. भिन्न समयवर्ती क्षणिक कारण-कार्य व्यवस्था का ज्ञान कराना भी इसका प्रयोजन है। __इत्यादि अनेक प्रयोजनों की सिद्धि के लिए कार्य के कारणों में अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय विशिष्ट द्रव्यरूप क्षणिक उपादान को कारण रूप में बताया जाता है। प्रश्न १४: कार्य के कारणों में तत्समय की योग्यतारूप क्षणिक उपादान को कारणरूप में बताने का प्रयोजन क्या है ? उत्तर : कार्य के कारणों में तत्समय की योग्यतारूप क्षणिक उपादान को कारणरूप में बताने के कुछ मुख्य प्रयोजन इसप्रकार हैं - १. एक समयवर्ती पर्याय संबंधी षट्कारकीय चरम स्वतंत्रता, स्वाधीनता का ज्ञान कराने के लिए इस उपादान को बताया जाता है। २. अकारण पारिणामिकभावरूप भवितव्यता और काललब्धि को कार्य
और काल का नियामक कारण बताने के लिए इस कारण का कथन किया जाता है; अर्थात् जिस समय जिस कार्य का होना स्वत:सिद्ध है, उस समय वही होगा; उसे किसी भी प्रयास से किसी के द्वारा भी रोका नहीं जा सकता है - ऐसी अकृत्रिम सुदृढ़ सुव्यवस्थित परिणमन व्यवस्था का बोध कराने के लिए इस कारण का कथन किया जाता है। ३. अभिन्न समयवर्ती कारण-कार्य संबंध का ज्ञान भी इससे हो जाता है। ४. “उपादानकारणसदृशं हि कार्यं भवति - उपादान कारण के समान ही कार्य होता है।" - जिनागम का यह कथन वास्तव में तत्समय की योग्यतारूप इस क्षणिक उपादान की अपेक्षा ही किया जाता है; अन्य की अपेक्षा से नहीं। ५. अभाव में से भाव नहीं होता है। वास्तव में प्रत्येक द्रव्यगत भाव
- उपादान-निमित्त/५३