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अन्य गुणों में कभी भी नहीं होगा; अत: अन्य द्रव्यों या गुणों से अपना लक्ष्य हटा लेने के लिए इस त्रिकाली उपादान कारण का ज्ञान कराया जाता है। २. अनन्त शक्ति-सम्पन्न त्रैकालिक द्रव्य को उस कार्य की भी अपेक्षा नहीं है; वह तो उस कार्य के व्यक्त हुए बिना भी वैसी योग्यता से सदा सम्पन्न है-यह ज्ञात हो जाने पर उस कार्य के व्यक्त नहीं होने पर भी उस त्रैकालिक योग्यता की स्वीकृति के बल पर दीनता, हीनता, पामरता आदि विकृत भावों का अभाव हो जाता है। ३. अन्य को भी विवक्षित कार्य की व्यक्तता के अभाव में भी उसकी इसी त्रैकालिक योग्यता की स्वीकृति के बल पर दीन, हीन, पामर, तुच्छ रूप में देखने का भाव समाप्त होकर जीवन में सहज समता भाव व्यक्त हो जाता है। ४. कार्य के कारणों में द्रव्य-शक्ति की अनिवार्यता सिद्ध करना भी इसे बताने का प्रयोजन है। यदि द्रव्य में उस कार्यरूप परिणमित होने की शक्ति ही नहीं होगी तो द्रव्य में वह कार्य कभी भी नहीं हो सकता है; अत: प्रयास करने के बाद भी सफलता नहीं मिलने पर द्रव्य-शक्ति का निर्णय कर जीवन में सहज समता व्यक्त हो जाती है। ५. सर्वथा असत् का कभी भी उत्पाद नहीं होता है तथा सत् का कभी भी नाश नहीं होता है- यह ज्ञान कराना भी इस कारण को बताने का प्रयोजन है। त्रिकाली उपादान कारण समझ में आ जाने से तत्संबंधी विपरीत मान्यताएं नष्ट हो जाती हैं। ६. निज शक्ति के बिना द्रव्य में कभी भी कार्य नहीं हो सकता है -यह ज्ञात हो जाने पर परमुखापेक्षी वृत्ति नष्ट हो जाती है। ७. भाव-भाव शक्ति की स्वीकृति हो जाने से निमित्ताधीन, पराधीनदृष्टि नष्ट होकर दृष्टि स्वसन्मुख हो जाने के कारण जीवन निराकुल, अतीन्द्रिय आनन्दमय हो जाता है।
इत्यादि प्रयोजन से कार्य के कारणों में त्रिकाली उपादान कारण को बताया गया है।
- उपादान-निमित्त/५१ -