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________________ पापरूप किन्हीं भी कर्म प्रकृतिओं की स्थिति अंत: कोड़ाकोड़ी सागर से अधिक नहीं होती है; तथापि उनमें से पुण्य प्रकृतिओं का प्रकृति, प्रदेश और अनुभाग बन्ध उत्तरोत्तर अधिक होता है। पुण्य का उदय भी यथायोग्य चलता रहता है। तेरहवें गुणस्थानवर्ती तीर्थंकर केवली के पुण्य का उदय सर्वाधिक होता है। उससे गुणस्थानानुसार शुद्धता में तो कोई बाधा नहीं आती है; तथापि गुणस्थान की वृद्धि और साक्षात् मोक्ष दशा में ये बाधक ही हैं; अत: मोक्षमार्ग में इनका स्थान अभावात्मक कहा गया है। इसप्रकार ये पुण्य-पाप मोक्षमार्ग में कुछ भी सहयोग नहीं करते हैं; वरन् इनकी विद्यमानता पर्यन्त संसार में ही रहना पड़ता है; जीव सिद्ध नहीं हो पाता; अव्याबाध सुख, अमूर्तिकता आदि गुण प्रगट नहीं कर पाता है; अत: मोक्षमार्ग में इनका निषेध किया गया है। पुण्णेण होइ विहवो विहवेण मओ मएण मइ-मोहो। मइ-मोहेण य पावं ता पुण्णं अम्ह मा होउ ॥प.प्र.२-६०॥ पुण्य से वैभव; वैभव से मद/घमण्ड; मद से मतिमोह/बुद्धि में भ्रम/ अविवेक; मति मोह से पाप होता है; अत: ऐसे पुण्य हमारे नहीं हों। परिणति सब जीवन की... परिणति सब जीवन की, तीन भाँति वरनी। एक पुण्य एक पाप, एक राग हरनी॥टेक। तामें शुभ अशुभ अंध, दोय करें कर्म बंध। वीतराग परिनति ही, भवसमुद्र तरनी ।।१।। जावत शुद्धोपयोग, पावत नाहीं मनोग। तावत ही करन जोग, कही पुण्य करनी॥२॥ त्याग शुभ क्रिया कलाप, करो मत कदाच पाप। शुभ में न मगन होय, शुद्धता विसरनी ।।३।। ऊँच ऊँच दशा धारि, चित प्रमाद को विडारि। . ऊँचली दशातें मति, गिरो अधो धरनी॥४॥ 'भागचन्द' या प्रकार, जीव लहै सुख अपार। याके निरधार स्याद-वाद की उचरनी॥५॥ - तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २/४४ -
SR No.007197
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherA B Jain Yuva Federation
Publication Year2008
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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