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तक परिपूर्ण मुक्ति प्राप्त नहीं हो पाती है; अत: मोक्षमार्ग में पुण्य-पाप का स्थान अभावात्मक ही है। प्रश्न ५ : आपने मुक्ति के मार्ग में पुण्य का स्थान अभावात्मक है - यह सिद्ध किया; पर साथ में यह भी बताया कि साधक दशा में ज्ञानधारा के साथ शुभाशुभ कर्मधारा होती अवश्य है - इसका क्या तात्पर्य है ? उत्तर : अपने स्वरूप को अपनत्वरूप से जानकर, उसमें क्षणिक लीनता के बाद भी तत्समय की योग्यता और अनादिकालीन पर-लक्षी संस्कार के कारण जबतक यह जीव पूर्ण स्वरूप-लीन नहीं रह पाता है, तबतक उसमें ज्ञानधारा और कर्मधारा-ये दो धाराएँ चलती रहती हैं। भूमिका के अनुसार कषाय के अभावरूप शुद्ध-परिणति और शुद्धोपयोग ज्ञानधारा है तथा शेष रहीं कषायों के कारण होनेवाले राग-द्वेष रूप पर-लक्षी परिणाम कर्मधारा हैं। इन दोनों के एकसाथ रहने में कोई विरोध नहीं है; इसे स्पष्ट करते हुए आचार्य अमृतचंद्रदेव समयसार की आत्मख्याति टीका के कलश ११०वें में लिखते हैं -
"यावत्पाकमुपैति कर्मविरतिर्ज्ञानस्य सम्यङ्न सा, कर्मज्ञानसमुच्चयोऽपि विहितस्तावन्न काचित्क्षतिः। किन्त्वत्रापि समुल्लसत्यवशतो यत्कर्म बंधाय तन्,
मोक्षाय स्थितमेकमेव परमं ज्ञानं विमुक्तं स्वतः॥ जब तकजानकी कर्मविरति भली-भाँति परिपूर्णता को प्राप्त नहीं होती है; तब तक कर्म और ज्ञान का एकत्रितपना शास्त्र में कहा गया है। उनके एकत्रित रहने में कोई भी क्षति या विरोध नहीं है; किन्तु यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि आत्मा में अवशपने जो कर्म प्रगट होता है, वह तो बन्ध का कारण है और जो एक, स्वत:-विमुक्त (त्रिकाल परद्रव्य-भावों से भिन्न) परम-ज्ञान में स्थिति है, वह एक ही मोक्ष का कारण है।"
निष्कर्ष यह है कि साधक दशा में ये दोनों धाराएं एक साथ रहती हैं। इतना ही नहीं; कितने ही पुण्य परिणाम तो ऐसे हैं, जो विराधक दशा में होते ही नहीं हैं, साधक दशा में ही होते हैं; जैसे तीर्थंकर और आहारकद्विक के बंध में निमित्त होने वाले पुण्य परिणाम । इसीप्रकार इसमें यद्यपि पुण्य
पुण्य और पाप/४३ -