________________
66
पुण्य से जीव स्वर्ग पाता है, पाप से नरक का निवास पाता है। इन दोनों को छोड़कर जो आत्मा को जानता है, वह मोक्ष को प्राप्त करता है ।" आचार्य पूज्यपादस्वामी समाधितंत्र में इसे इसप्रकार व्यक्त करते हैं'अपुण्यमव्रतैः पुण्यं व्रतैर्मोक्षस्तयोर्व्ययः । अव्रतानीव मोक्षार्थी व्रतान्यपि ततस्त्यजेत् ॥ ८३ ॥ अव्रतों से अपुण्य / पाप और व्रतों से पुण्य होता है; इन दोनों के व्यय से मोक्ष होता है; अतः मोक्षार्थी को अव्रतों के समान व्रतों को भी छोड़ देना चाहिए । '
मोक्षमार्ग में पुण्य का स्थान बताते हुए आचार्य कुन्दकुन्दस्वामी 'पंचास्तिकाय - संग्रह' नामक ग्रन्थ में लिखते हैं
"अरहंत - सिद्ध-चेदियपवयणगणणाणभत्तिसंपण्णो । बंधदि पुण्णं बहुसो ण हु सो कम्मक्खयं कुणदि ॥ १६६॥ अरहंत, सिद्ध, चैत्य/अर्हंतादि की प्रतिमा, प्रवचन / शास्त्र, मुनिगण, ज्ञान के प्रति भक्ति-सम्पन्न जीव पुण्य तो बहुत बाँधता है; पर वास्तव में वह कर्म का क्षय नहीं कर पाता है।
2
इसे ही और भी स्पष्ट करते हए वे वहीं आगे लिखते हैं“धरिदुं जस्स ण सक्कं, चित्तुब्भामं बिणा दु अप्पाणं ।
-
रोधो तस्स ण विज्जदि, सुहासुहकदस्स कम्मस्स ॥ १६८॥ जो राग के सद्भाव के कारण अपने चित्त को भ्रमण से रहित नहीं रख पाता है, उसके शुभाशुभ कर्मों का निरोध नहीं हो पाता है। " इसलिए निष्कर्षरूप में वे वहीं आगे लिखते हैं"तम्हा णिव्वुदिकामो, रागं सव्वत्थ कुणदु मा किंचि । सो तेण वीदरागो, भविओ भवसायरं तरदि ॥ १७२ ॥ इसलिए मोक्षाभिलाषी सर्वत्र किंचित भी राग मत करो। ऐसा करने से वह भव्य जीव वीतराग होकर भवसागर को पार कर लेता है । "
-
निष्कर्षरूप में सम्पूर्ण कथन का सार यही है कि यद्यपि मोक्षमार्गी साधक जीव के भूमिकानुसार पुण्य-पाप परिणाम, तन्निमित्तक पुण्यपाप का बंध और पुण्य-पाप का उदय होता तो अवश्य है; तथापि उससे मोक्षमार्ग में कुछ सहयोग नहीं मिलता है; वरन् जब तक वे रहते हैं, तब तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २ / ४२