SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 46
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उन्हें व्रत, शील, संयम आदि का अवलम्बन तो चाहिए ही। आप इनका निषेध क्यों करते हैं ? इसका उत्तर देते हुए गुरु कहते हैं कि हे भाई! ऐसा नहीं है। क्या मोक्षमार्ग के पथिक जीवों का अवलम्बन पुण्य-पापरूप है ? अरे, उनका अवलम्बन तो उनका ज्ञानानन्द-स्वभावी भगवान आत्मा है, जो सदा विद्यमान है। कर्मों का अभाव तो आत्मानुभव और उसके अभ्यास से होता है; अत: उनके निरावलम्ब होने का कोई प्रश्न ही नहीं है। मोह, राग, द्वेष रहित आत्मा में समाधि लगाना ही मुक्ति का कारण और मोक्ष स्वरूप है; व्रतादि के विकल्प और जड़ की क्रिया तो पुद्गल परछाईं/पुद्गल जनित हैं।" अन्तरात्मामय साधक अवस्था में दोनों की विद्यमानता होने पर भी दोनों के वास्तविक स्वरूप का विश्लेषण करते हुए वे, वहीं लिखते हैं"जौलौं अष्ट कर्म को विनास नाँही सरवथा, तौलौं अन्तरात्मा में धारा दोइ वरनी। एक ग्यानधारा एक सुभासुभ कर्मधारा, दुहूँ की प्रकृति न्यारी न्यारी न्यारी धरनी॥ इतनौ विसेस जु करमधारा बंधरूप, पराधीन सकति विविध बंध करनी। ग्यानधारा मोखरूप मोख की करनहार, दोख की हरनहार भौ समुद्रतरनी ॥१४॥ जब तक आठों कर्म पूर्णतया नष्ट नहीं हो जाते हैं, तब तक अन्तरात्मा में ज्ञानधारा और शुभाशुभरूप कर्मधारा - दोनों विद्यमान रहती हैं। दोनों धाराओं का पृथक्-पृथक् स्वभाव है, पृथक्-पृथक् सत्ता है। विशेष भेद इतना है कि कर्मधारा बंधरूप है, आत्मशक्ति को पराधीन करती है, अनेक प्रकार से बंध बढ़ाती है और ज्ञानधारा मोक्ष-स्वरूप है, मोक्ष की दाता है, दोषों को हटाती है, संसार-सागर से पार होने के लिए नौका के समान है।" ___ मुनिराज योगीन्दुदेव मोक्षमार्ग में पुण्य का स्थान स्पष्ट करते हुए योगसार' में लिखते हैं "पुण्णिं पावइ सग्ग जिउ, पावएँ णरयणिवासु। वे छंडिवि अप्पा मुणई, तो लब्भई सिववासु ॥३२॥ - पुण्य और पाप/४१ -
SR No.007197
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherA B Jain Yuva Federation
Publication Year2008
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy