________________
गुरु कहै जबलौं क्रिया के परिनाम रहें.
तबलौं चपल उपजोग जोग धरनी ॥ थिरता न आवै तौलौं सुद्ध अनुभौ न होड़,
यातैं दोऊ क्रिया मोखपंथ की कतरनी । बंध की करैया दोऊ दुहूमें न भली कोऊ,
बाधक विचारि में निसिद्ध कीनी करनी ।। १२ ।। कोई शिष्य पूछता है कि हे स्वामी ! आपने अशुभ क्रिया को अशुद्ध और शुभ क्रिया को शुद्ध - ऐसा क्यों नहीं कहा ? इस पर श्रीगुरु कहते हैं कि जब तक शुभ-अशुभ क्रिया के परिणाम रहते हैं, तब तक ज्ञान - दर्शन रूप उपयोग और मन-वचन-कायमय योग चंचल रहते हैं । जब तक ये स्थिर नहीं होते हैं, तब तक शुद्ध अनुभव नहीं होता है; अत: दोनों ही क्रियाएँ मोक्षमार्ग में बाधक ही हैं, दोनों मोक्षमार्ग को काटने के लिए कैंची के समान हैं, दोनों ही बंध को करनेवाली हैं, दोनों में से कोई भी अच्छी नहीं हैं। मैंने मोक्षमार्ग में बाधक जानकर ही दोनों का निषेध किया है।" पुण्य-पाप - दोनों ही क्रियाओं का निषेध कर देने पर भी मोक्षमार्गी जीव आश्रय विहीन / असहाय नहीं होते हैं; इसे स्पष्ट करते हुए वे, वहीं लिखते हैं.
1
" शिष्य कहै, स्वामी तुम करनी असुभ सुभ,
कीनी है निषेध मेरे संसै मन माँही है। मोख के सधैया ग्याता देसविरती मुनीस,
तिनकी अवस्था तो निरावलम्ब नाँही है ॥ कहै गुरु करम कौ नास अनुभौ अभ्यास,
ऐसौ अवलंब उनही कौ उन पाँही है। निरुपाधि आतम समाधि सोई सिवरूप,
और दौर धूप पुद्गल परछाहीं है ॥८॥ शिष्य कहता है कि हे स्वामी ! आपने शुभ और अशुभ दोनों को समान बताकर इनका निषेध कर दिया है; इससे मेरे मन में एक संशय उत्पन्न हो गया है कि मोक्षमार्ग की साधना करने वाले अविरत सम्यग्दृष्टि, अणुव्रती और महाव्रती जीवों की अवस्था बिना अवलम्बन के तो रहती नहीं है; तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २ / ४०