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________________ "मुकति के साधक कौं बाधक करम सब, आतमा अनादि को करम माँहि लुक्यो है। एते पर कहे जो कि पाप बुरौ पुन्न भलौ, सोई महा मूढ़ मोखमारग सौं चुक्यौ है। सम्यक सुभाउ लिए हिए में प्रगट्यौ ग्यान, ऊरध उमंगि चल्यौ काहूपै न रुक्यौ है। आरसी सौं उज्जल बनारसी कहत आपु, कारन सरूप द्वै कै कारज कौं दुक्यौ है ॥१३॥ मुक्ति के साधक आत्मा को सब कर्म बाधक हैं, आत्मा अनादिकाल से कर्मों में छुपा हुआ है। इतने पर भी जो पाप को बुरा और पुण्य को भला कहता है, वही महामूर्ख मोक्षमार्ग से विमुख है। जब जीव को सम्यग्दर्शन सहित ज्ञान प्रगट होता है, तब वह अनिवार्य उन्नति करता है। पण्डित बनारसीदासजी कहते हैं कि दर्पण के समान उज्ज्वल वह ज्ञान स्वयं कारण स्वरूप होकर कार्य में परिणत होता है अर्थात् सिद्ध पद प्राप्त करता है।" मोक्ष की प्राप्ति मात्र अन्तर्दृष्टि से होती है, बाह्य-दृष्टि से मोक्ष नहीं है; इसे वे, वहीं इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “अन्तर दृष्टि लखाउ, निज सरूप को आचरन। ए परमातम भाउ, सिव कारन येई सदा॥१०॥ अंतरंग ज्ञान, दृष्टि और आत्म-स्वरूप में स्थिरता - यह परमात्मा का स्वभाव है और यही परमेश्वर बनने का उपाय है।" "करम सुभासुभ दोइ, पुद्गलपिंड विभावमल। इनसौं मुकति न होइ, नहिं केवल पद पाइए॥११॥ __ शुभ और अशुभ – ये दोनों कर्ममल हैं, पुद्गल पिण्ड हैं, आत्मा के विभाव हैं, इनसे मोक्ष नहीं होता है, केवलज्ञान भी प्राप्त नहीं होता है।" मुक्तिमार्ग में पाप-पुण्य के स्थान को प्रश्नोत्तर शैली द्वारा स्पष्ट करते हुए वे, वहीं आगे लिखते हैं - “कोऊ शिष्य कहे स्वामी ! असुभक्रिया असुद्ध, सुभ क्रिया सुद्ध तुम ऐसी क्यों न वरनी। • पुण्य और पाप/३९
SR No.007197
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherA B Jain Yuva Federation
Publication Year2008
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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