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जिन्होंने न पुण्य किया और न पाप किया है; वरन् आत्मा के अनुभव में अपने मन को लगाया है; उन्होंने ही आते हुए कर्मों को रोका है और संवर प्रगट करके सुख प्राप्त किया है। "
आचार्यकल्प पण्डित टोडरमलजी मोक्ष मार्ग प्रकाशक के सातवें अधिकार में लिखते हैं- "सभी मिथ्याध्यवसाय त्याज्य हैं; अतः हिंसादिवत अहिंसादि को भी बंध का कारण जानकर हेय ही मानना ... । जहाँ वीतराग होकर दृष्टा ज्ञाता रूप प्रवर्ते, वहाँ निर्बंध है, वही उपादेय है । "
कविवर पण्डित बनारसीदासजी मुक्ति के मार्ग में पुण्य के स्थान को नाटक समयसार के पुण्य-पाप एकत्व द्वार में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "सील तप संजम, विरति दान पूजादिक,
अथवा असंजम, कषाय विषैभोग है। कोऊ सुभरूप, कोऊ असुभ स्वरूपमूल,
वस्तु के विचारत, दुविध कर्मरोग है ॥ ऐसी बंध पद्धति, बखानी वीतरागदेव,
आतमधरम में करम त्याग जोग है । भौजल तरैया, राग-द्वेष को हरैया महा,
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मोख को करैया, एक सुद्ध उपयोग है ॥७॥ शील, तप, संयम, व्रत, दान, पूजा आदि अथवा असंयम, कषाय, विषय-भोग आदि – इनमें कोई शुभरूप हैं और कोई अशुभरूप हैं; परन्तु मूल वस्तु का विचार करने पर यह दोनों प्रकार का कर्म - रोग ही है। भगवान वीतरागदेव ने ऐसी ही बंध की पद्धति कही है। पुण्य-पाप दोनों को बंध रूप व बंध का कारण कहा है; अत: आत्मधर्म/आत्मा का हित करनेवाले धर्म में तो सम्पूर्ण शुभ-अशुभ कर्म त्याग करने योग्य हैं। संसार - समुद्र पार उतारने वाला, राग-द्वेष को समाप्त करने वाला और मोक्ष को प्राप्त करानेवाला तो एकमात्र शुद्धोपयोग ही है । "
इसी को पुनः स्पष्ट करते हुए वे, वहीं लिखते हैं
तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २ / ३८