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ढाल में लिखते हैं.
"जिन पुण्य-पाप नहिं कीना, आतम अनुभव चित दीना । तिन ही विधि आंवत रोके, संवर लहि सुख अवलोके ॥ १०॥ जिन्होंने पुण्य-पाप नहीं किया, आत्मा के अनुभव में ही अपने चित्त को लगाया है; उन्होंने ही आते हुए कर्मों को रोककर संवर प्राप्त कर सुख की प्राप्ति की है। "
इत्यादि आगम-उद्धरणों और तर्कों से यह सिद्ध है कि आस्रव-बंध की अपेक्षा पुण्य और पाप - दोनों समान हैं।
प्रश्न ४ : मुक्ति के मार्ग में पुण्य का क्या स्थान है ?
उत्तर : वास्तव में संसार दुःख का ही पर्यायवाची है। चार गति, चौरासी लाख योनिआँ अपने अपराधों का फल भोगने के स्थान होने से दुःख रूप ही हैं। समस्त जिनागम में चार गति रूप संसार के दुःखों का वर्णन है । वैराग्यभावना में तो पण्डित भूधरदासजी स्पष्ट लिखते हैं
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"जो संसार विषै सुख हो तो, तीर्थंकर क्यों त्यागें । काहे कौं शिवसाधन करते, संजम सों अनुरागें ॥ " पुण्य-पाप - दोनों प्रकार के परिणाम संसाररूप, संसार के कारण, बंधमय, बंध के कारण, आकुलतामय, आकुलता के कारण, पराधीनतामय, पराधीनता के कारण होने से तथा मोक्ष इससे विपरीत मुक्तिमय, निर्बंधमय, निराकुलतामय, स्वतन्त्रता - स्वरूप होने के कारण वास्तव में मुक्ति के मार्ग में पुण्य-पाप का स्थान अभावात्मक ही है।
कविवर पण्डित द्यानतरायजी सोलहकारण पूजन की जयमाला प्रारम्भ करते हुए लिखते हैं कि -
"सोलहकारण गुण करै, हरै चतुर्गति वास । पाप पुण्य सब नाशकैं, ज्ञानभानु परकास ॥
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कविवर पण्डित दौलतरामजी छहढाला ग्रन्थ की पाँचवीं ढाल में संवर भावना का स्वरूप बताते हुए लिखते हैं -
"जिन पुण्य पाप नहीं कीना, आतम अनुभव चित दीना । तिनहीं विधि आवत रोके, संवर लहि सुख अवलोके ॥ १०॥ पुण्य और पाप / ३७