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________________ मनुष्य, नारकी, तिर्यंच और देव - सभी संसारी जीव यदि देहोत्पन्न दुःख का ही अनुभव करते हैं तो जीवों का वह उपयोग शुभ और अशुभ - दो प्रकार का कैसे है ? अर्थात् नहीं है। "" पुण्य-पाप के एकत्व को स्पष्ट करनेवाली, आचार्य अमृतचन्द्रदेव द्वारा लिखी गई इसकी उत्थानिका का हिन्दी अनुवाद इसप्रकार है - - " इसप्रकार युक्तिपूर्वक इन्द्रिय सुख को दुःखरूप प्रगट करके, अब इन्द्रिय-सुख के साधनभूत पुण्य को उत्पन्न करनेवाले शुभोपयोग की दुःख के साधनभूत पाप को उत्पन्न करनेवाले अशुभोपयोग से अविशेषता / समानता प्रगट करते हैं" इसके बाद ७३, ७४, ७५, ७६ गाथाओं की उत्थानिकाओं - टीकाओं में उन्होंने इसी तथ्य को अनेकानेक तर्क- युक्ति देकर स्पष्ट किया है। इसी ग्रन्थ में इस प्रकरण का समापन करते हुए आचार्य कुन्दकुन्ददेव तो यहाँ तक लिखते हैं - “ण हि मण्णदि जो एवं, णत्थि विसेसोत्ति पुण्णपावाणं । हिंडदि घोरमपारं, संसारं मोहसंछण्णो ॥७७॥ इसप्रकार ‘पुण्य और पाप में अन्तर नहीं है, दोनों एक समान हैं' ऐसा जो नहीं मानता है, वह मोहाच्छादित होता हुआ घोर अपार संसार में परिभ्रमण करता है।" - आचार्य नेमिचंद्र सिद्धान्त - चक्रवर्ती अपने गोम्मटसार कर्मकाण्ड ग्रन्थ में लिखते हैं- “कम्मत्तणेण एक्कं ... । - कर्म कर्मपने से एक है |" गाथा ६, प्रथम चरण ॥ पण्डित दौलतरामजी अपनी लोकप्रिय कृति छहढाला चौथी ढाल, छंद ९ के पूर्वार्ध में पुण्य-पाप की एकता स्पष्ट करते हुए लिखते हैं"पुण्य-पाप फल माँहि, हरख-बिलखौ मत भाई । - यह पुद्गल परजाय, उपजि विनसै थिर थाई ॥ " हे भाई ! पुण्य और पाप के फल में हर्ष और विषाद मत करो। ये दोनों पुद्गल की पर्यायें हैं, उत्पन्न होकर नष्ट हो जाती हैं - यह सुस्थिर तथ्य है । ' सुख की प्राप्ति किन्हें होती है ? - इसे स्पष्ट करते हुए वे वहीं, पाँचवी तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २ / ३६
SR No.007197
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherA B Jain Yuva Federation
Publication Year2008
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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