________________
पुण्य-पाप की एकता को स्पष्ट करते हुए वहीं वे आगे लिखते हैं - "पाप बंध पुन्न बंध दुहूँ में मुकति नाँहि।
कटुक मधुर स्वाद पुग्गल कौ पेखिए। संकलेस विसुद्ध सहज दोऊ कर्मचाल।
कुगति सुगति जगजाल में विसेखिए। कारनादि भेद तोहि सूझत मिथ्यात माँहि।
ऐसौ द्वैत भाव ग्यान दृष्टि में न लेखिए। दोऊ महा अंधकूप दोऊ कर्मबंधरूप।
दुहूँ कौ विनास मोख मारग में देखिए ॥७॥ पापबंध और पुण्यबंध दोनों ही मुक्ति के मार्ग में बाधक होने से दोनों समान हैं। कटुक और मधुर स्वाद भी पुद्गलजन्य होने से तथा ये संक्लेश
और विशुद्ध भाव - दोनों ही विभाव होने से दोनों समान हैं। कुगति और सुगति दोनों चतुर्गति रूप संसार में ही होने के कारण इनमें फल-भेद भी नहीं है। वस्तुत: पुण्य-पाप में कारण, रस, स्वभाव, फल आदि का भेद है ही नहीं; मिथ्यात्व के कारण ही अज्ञानी जीव को ऐसा दिखाई देता है। ज्ञान-दृष्टि में/ज्ञानी को ऐसे भेद दिखाई नहीं देते हैं। पुण्य और पाप - दोनों ही अन्धकूप हैं, दोनों ही कर्मबंधरूप हैं, मोक्षमार्ग में दोनों का ही अभाव देखा जाता है।"
आचार्यकल्प पण्डित टोडरमलजी मोक्ष-मार्ग-प्रकाशक के सातवें . अध्याय में पुण्य-पाप की एकता को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - ___ “यह जीव आस्रव तत्त्व में से हिंसादिरूप पापास्रव को तो हेय जानता है, पर अहिंसादिरूपपुण्यास्रव को उपादेय मानता है; जबकि वास्तविकता यह है कि दोनों कर्मबंध के कारण हैं; इनमें उपादेयपना मानना ही मिथ्यादृष्टि है। ये सभी अध्यवसाय होने से त्याज्य ही हैं।" .
पुण्य-पाप के एकत्व को स्पष्ट करते हुए आचार्य कुन्दकुन्ददेव प्रवचनसार में लिखते हैं -
"णरणारयतिरियसुरा, भजति जदि देहसंभवं दुक्खं । किह सो सुहो व असुहो, उवओगो हवदि जीवाणं ॥७२॥
- पुण्य और पाप/३५ -