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इसलिए इन दोनों पुण्य-पापरूप कुशीलों के साथ राग व संसर्ग मत करो; क्योंकि कुशील के साथ संसर्ग व राग करने से स्वाधीनता का नाश होता है।"
वास्तव में दोनों ही भाव बंध के कारण होने से समान ही हैं, मुक्त दशा तो दोनों के त्याग में ही व्यक्त होती है - ऐसा भाव व्यक्त करते हुए मुनिश्री योगीन्दुदेव 'योगसार' में लिखते हैं
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“पुण्णिं पावइ सग्ग जिउ, पावएँ णरयणिवासु । छंडिवि अप्पा मुणई, तो लब्भई सिववासु ॥ ३२॥ पुण्य से जीव स्वर्ग और पाप से नरक के निवास को प्राप्त करता है। इन दोनों को छोड़कर जो आत्मा को जानता है, वह शिववास मोक्षदशा को प्राप्त करता है।'
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कविवर पं. बनारसीदासजी नाटक समयसार के पुण्य-पाप एकत्वद्वार में दोनों को एक समान बताते हुए लिखते हैं" जैसे काहू चंडाली जुगलपुत्र जनें तिनि,
एक दियौ बाँभन कैं एक घर राख्यौ है । भन कहायौ तिनि मद्य माँस त्याग कीनौ,
चंडाल कहायौ तिनि मद्य माँस चाख्यौ है ॥ तैसें एक वेदनी करम के जुगल पुत्र,
एक पाप एक पुन्न नाम भिन्न भाख्यौ है । दुहूँ माँहि दौर धूप दोऊ कर्मबंधरूप,
और घर
या ग्यानवंत नहिं कोउ अभिलाख्यौ है ॥ ३ ॥ जैसे किसी चांडालनी के युगल / जुड़वा पुत्र हुए। उसने उनमें से एक पुत्र ब्राम्हण को दे दिया और दूसरा अपने घर में रखा। ब्राम्हण को दिया गया पुत्र ब्राम्हण कहलाने के कारण मद्य-माँस का त्यागी हुआ में रहनेवाला पुत्र चांडाल कहलाने के कारण मद्य-माँसभक्षी हुआ; उसी प्रकार एक वेदनीय कर्म के पुण्य और पाप - ये दो भिन्न-भिन्न नामवाले युगल पुत्र हैं। दोनों में ही संसार का परिभ्रमण है, दोनों ही कर्मबंध की परंपरा को बढ़ाते हैं; अत: ज्ञानीजन दोनों की ही अभिलाषा नहीं करते हैं।' तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २ / ३४