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शुद्धता/ऊर्ध्वता करनेवाली गर्भित शुद्धता के रूप में पाप-पुण्य का भेद स्पष्ट करते हैं।
पुण्य-पाप को पृथक्-पृथक् बताते हुए आचार्यकल्प पंडित टोडरमलजी मोक्ष-मार्ग-प्रकाशक के नवमें अधिकार में लिखते हैं -
“पुण्य-पाप का श्रद्धान होने पर पुण्य को मोक्षमार्गन माने या स्वच्छन्दी होकर पापरूप न प्रवर्ते इसलिए मोक्षमार्ग में इनका श्रद्धान भी उपकारीजानकरदोतत्त्व, विशेष के विशेष मिलाकर नव पदार्थ कहे।"
इसप्रकार लौकिक दृष्टि से, नव पदार्थों की दृष्टि से पुण्य-पाप में अन्तर है। पुण्य में आकुलता कम और पाप में आकुलता अधिक होने से पाप की अपेक्षा पुण्य को अच्छा भी कहते हैं। शुद्ध दशा होने के पूर्व नियम से शुभभाव होने के कारण तथा शुद्धदशा का निमित्त या सहचारी होने के कारण शुभभाव को उपचार से जिनागम में व्यवहारधर्म भी कहा गया है। संज्ञा, संख्या, लक्षण, प्रयोजन आदि की अपेक्षा भी इनमें अन्तर है। प्रश्न ३: पुण्य-पाप – दोनों में सयुक्तिक एकत्व सिद्ध कीजिए। उत्तर : वास्तव में पुण्य-पाप- दोनों ही बंधनमय, बंध के कारण, कर्म के उदय में होनेवाले पराधीन, विकृत, आकुलतामय परिणाम होने से एक आस्रव-बंधरूपही हैं। आचार्य कुन्दकुन्ददेव अपने समयसार नामक ग्रन्थ के पुण्य-पाप अधिकार में इसे इसप्रकार स्पष्ट करते हैं"कम्ममसुहं कुसीलं, सुहकम्मं चावि जाणह सुसीलं। कह तं होदि सुसीलं, जं संसारं पवेसेदि ॥४५॥ सोवण्णियं पि णियलं, बंधदि कालायसं पि जह पुरिसं। बंधदि एवं जीवं, सुहमसुहं वा कदं कम्मं ॥४६।। तम्हा दु कुसीलेहिं य, रायं मा कुणह मा व संसग्गं । साहीणो हि विणासो, कुसीलसंसग्गरायेण ॥४७॥
अशुभकर्म कुशील है और शुभकर्म सुशील है - ऐसा तुम जानते हो; परन्तु जो शुभकर्म जीव का प्रवेश संसार में कराता है, वह सुशील कैसे हो सकता है ?
जैसे लोहे की बेड़ी के समान सोने की बेड़ी भी पुरुष को बाँधती है; उसीप्रकार अशुभकर्म के समान शुभकर्म भी जीव को बाँधता ही है।
- पुण्य और पाप/३३ --