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पाठ ३ : पुण्य और पाप प्रश्न १ : पुण्य और पाप का स्वरूप स्पष्ट कीजिए। उत्तर : पुण्य और पाप दोनों आत्मा की विकारी अन्तर्वृत्तिआँ हैं। देवपूजा, गुरूपासना, दया, दान, व्रत, शील, संयम आदि रूप प्रशस्त परिणाम/ शुभभाव, पुण्यभाव कहलाते हैं; इनका फल लौकिक अनुकूलताओं की प्राप्ति है। हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील, परिग्रह-संचय आदि रूप अप्रशस्त परिणाम/अशुभभाव, पापभाव कहलाते हैं; इनका फल लौकिक प्रतिकूलताओं की प्राप्ति है।
जिसके बंध में विशुद्ध भावों से विशेषता आती है, वह पुण्य कर्म है और जिसके बंध में संक्लिष्ट भावों से विशेषता आती है, वह पाप कर्म है। प्रशस्त राग, अनुकम्पा, कलुषता रहित भाव, अरहन्त आदि पंचपरमेष्ठिओं के प्रति भक्ति-भाव, व्रत, शील, संयम, दान, मंदकषाय आदि विशुद्ध भाव पुण्यबंध के कारण हैं और साता वेदनीय, शुभ आयु, उच्चगोत्र, देव गति आदि शुभ नाम पुण्य कर्म हैं।
प्रमाद सहित प्रवृत्ति, चित्त की कलुषता, विषयों की लोलुपता, दूसरों को संताप देना, दूसरों का अपवाद करना, आहार-भय-मैथुन-परिग्रह आदि संज्ञाएँ, तीनों कुज्ञान, आर्त-रौद्रध्यान, मिथ्यात्व, अप्रशस्त राग, द्वेष, अव्रत, असंयम, बहुत आरम्भ-परिग्रह के भाव, दुःख, शोक, ताप, आक्रन्दन, योगवक्रता, आत्मप्रशंसा, मूढ़ता, अनायतन, तीव्र कषाय आदि संक्लिष्ट भाव पापबंध के कारण हैं और ज्ञानावरण, दर्शनावरण, असाता वेदनीय, मोहनीय, नरकायु, तिर्यंच गति आदि अशुभ नाम, नीच गोत्र, अन्तराय पाप कर्म हैं। __ आचार्य कुन्दकुन्ददेव अपने प्रवचनसार ग्रंथ की १८१वीं गाथा के पूर्वार्ध में पुण्य-पाप का स्वरूप इसप्रकार लिखते हैं - __"सुहपरिणामो पुण्णं, असुहो पावं ति भणियमण्णेसु।। पर के प्रति शुभ परिणाम पुण्य है और अशुभ परिणाम पाप है।"
--- तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २/३० -