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वे ही अष्टपाहुड़, भावपाहुड़ की ८३वीं गाथा के पूर्वार्ध में पुण्य का स्वरूप स्पष्ट करते हुए लिखते हैं -
“पूयादिसु वयसहियं, पुण्णं हि जिणेहिं सासणे भणियं। पूजा आदि, व्रत सहित प्रवृत्ति आदि को जिनशासन में पुण्य कहा है।"
कविवर पण्डित बनारसीदासजी नाटक समयसार की उत्थानिका में पुण्य-पाप का स्वरूप इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
“जो विशुद्ध भावनि बँधे, अरु उरधमुख होइ।
जो सुखदायक जगत में, पुण्य पदारथ सोइ ॥२८॥ जो विशुद्ध/शुभभावों से बँधता है, स्वर्गादि के सम्मुख होता है और लौकिक सुख देनेवाला है, वह पुण्य पदार्थ है।" । _ “संक्लेश भावनि बँधे, सहज अधोमुख होइ।
दुखदायक संसार में, पाप पदारथ सोइ ॥२९॥ जो संक्लेश/अशुभभावों से बँधता है, सहज/अपने आप नीचे गिरता है और संसार में दुःख देनेवाला है, वह पापपदार्थ है।"
यहीं पुण्य-पाप के पर्यायवाची नाम बताते हुए वे लिखते हैं - .."पुण्य सुकृत ऊरधवदन, अकररोग शुभकर्म।
सुखदायक संसारफल, भाग बहिर्मुख धर्म ॥४०॥ पुण्य, सुकृत, ऊर्ध्ववदन, अकररोग (अकड़रोग), शुभकर्म, सुखदायक, संसार फल, भाग्य, बहिर्मुख, धर्म - ये पुण्य के नाम हैं।" “पाप अधोमुख, एन, अघ, कंपरोग दुखधाम ।
कलिल कलुस किल्विस दुरित, असुभ करम के नाम ॥४१॥ . पाप, अधोमुख, एन, अघ, कंपरोग, दुखधाम, कलिल, कलुष, किल्विष, दुरित – ये अशुभ कर्म के नाम हैं।”
संक्षेप में कहा जा सकता है कि आत्मा की विभाव परिणति को पुण्य -पाप कहते हैं। प्रश्न २ : पुण्य और पाप में कारण आदि भेदों को स्पष्ट कीजिए। उत्तर : पुण्य और पाप आस्रव-बन्धतत्त्व के ही विशेष होने पर भी इनमें
पुण्य और पाप/३१ -