________________
जानना हो, वही जानना सम्यग्ज्ञान है तथा जिसप्रकार से रागादि मिटें, वही आचरण सम्यक्चारित्र है।
इसप्रकार चारों अनुयोगों में सर्वत्र एक वीतरागता का ही प्रयोजन पुष्ट किया जाता है। प्रश्न १९ : शास्त्रों का अध्ययन करते समय यदि कहीं परस्पर विरोध भासित हो तो क्या करें? उत्तर : वास्तव में तो समस्त ही जिनवाणी एकमात्र वीतरागता की पोषक होने से उसमें परस्पर विरोधी कथन होते ही नहीं हैं। हमें अपेक्षाओं का सही ज्ञान नहीं होने से विरोध भासित होता है। जिनवाणी में समस्त कथन अपेक्षा से किया गया है। कहीं स्थूल-सूक्ष्म की अपेक्षा कथन है तो कहीं मुख्य-गौण की अपेक्षा कथन है; कहीं वास्तविक कथन है तो कहीं औपचारिक; कहीं असंयोगी वस्तु का कथन है तो कहीं संयोगी वस्तु का; कहीं द्रव्य की मुख्यता से कथन है तो कहीं पर्याय की मुख्यता से; कहीं प्रमाण -दृष्टि से कथन है तो कहीं नय-दृष्टि से इत्यादि रूप में विविध दृष्टिकोणों से कथन है।
जो जीव स्यात् पद की सापेक्षता सहित शास्त्रों का अर्थ समझने की पद्धति को हृदयंगम कर यथार्थ प्रयोजन पहिचानते हुए जिनवाणी के अभ्यास से अपने हित-अहित का निर्णय करते हैं; वे अवश्य ही सुख-शान्ति को प्राप्त करते हैं। मोक्षमार्ग में पहला उपाय आगम-ज्ञान कहा है। आगम-ज्ञान बिना धर्म का साधन नहीं हो सकता है; अत: हमें यथार्थ बुद्धि द्वारा अपने परिणामों की अवस्था देखकर धर्म में प्रवृत्ति बढ़ाते हुए स्याद्वाद शैली पूर्वक जिनवाणी का सतत अभ्यास करना चाहिए।
- आचरणीय मध्यस्थ वृत्ति - व्यवहारनिश्चयौ यः प्रबुध्य तत्त्वेन भवति मध्यस्थः। प्राप्नोति देशनायाः स एव फलमविकलं शिष्यः।।पु.सि.उ.८ ॥
जो तत्त्व से व्यवहार-निश्चय को जानकर मध्यस्थ होता है, वही शिष्य (देशना के अविकल फल को प्राप्त करता है।
--शास्त्रों का अर्थ समझने की पद्धति/२९