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इस द्रव्यानुयोग में भी चरणानुयोग के समान ग्रहण-त्याग कराने का प्रयोजन होने से छद्मस्थ के बुद्धिगोचर परिणामों की अपेक्षा ही कथन करते हैं। अन्तर मात्र इतना है कि चरणानुयोग में बाह्य क्रिया की मुख्यता से वर्णन करते हैं और द्रव्यानुयोग में आत्मपरिणामों की मुख्यता से वर्णन करते हैं; परन्तु करणानुयोग के समान सूक्ष्म वर्णन नहीं करते हैं। ___ जैसे उपयोग के शुभ, अशुभ, शुद्ध भेद छद्मस्थ के बुद्धिगोचर परिणामों की अपेक्षा किए हैं। जिस समय छद्मस्थ जीव बुद्धिगोचर भक्ति आदि
और हिंसा आदि कार्यरूप परिणामों को छोड़कर आत्मानुभव आदि कार्यों में प्रवर्तता है, उस समय उसे शुद्धोपयोगी कह देते हैं, पर वास्तव में पूर्ण शुद्धोपयोग तो यथाख्यात चारित्र में होता है; यहाँ तो मात्र बुद्धिगोचर रागादि का अभाव होने से शुद्धोपयोग कहा है। __इसप्रकार द्रव्यानुयोग के कथन की पद्धति स्थूल होने से सर्वत्र करणानुयोग से मिल नहीं पाती है।
द्रव्यानुयोग में अन्यमत प्ररूपित तत्त्वादि को असत्य बतलाने के लिए उनका निषेध करते हैं। यहाँ इसमें कुछ द्वेष बुद्धिवश ऐसा नहीं करते हैं; वरन् उन्हें असत्य बतलाकर सत्य का श्रद्धान कराने के लिए ऐसा करते हैं।
इसप्रकार द्रव्यानुयोग के व्याख्यान का विधान गहराई से समझकर उससे हमें अपने आत्मानुभव का प्रयोजन सिद्ध करना चाहिए। प्रश्न १८ : चारों अनुयोगों की कथन-पद्धति पृथक्-पृथक् होने पर भी सभी का मूल प्रयोजन क्या है ? उत्तर :चारों अनुयोगों की कथन-पद्धति पृथक्-पृथक् होने पर भी सभी का प्रयोजन एकमात्र वीतरागता का पोषण करना है। प्रसंगानुसार कहीं पर बहुत रागादि छुड़ाकर अल्प रागादि करने का प्रयोजन पुष्ट किया गया है तथा कहीं पर सम्पूर्ण रागादि छोड़ने.का प्रयोजन पुष्ट किया गया है; परन्तु रागादि बढ़ाने का प्रयोजन कहीं पर भी पुष्ट नहीं किया जाता है; अत: अधिक क्या कहें! इतना समझ लेना कि जिसप्रकार से रागादि मिटाने का श्रद्धान हो, वही श्रद्धान सम्यग्दर्शन है; जिसप्रकार से रागादि मिटाने का
- तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २/२८ -