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शील, संयम आदि का हीनपना भी प्रगट करते हैं; परन्तु इसका प्रयोजन अशुभ में लगाना नहीं है; वरन् शुद्धोपयोग में लगाने के लिए शुभोपयोग का निषेध किया गया है; क्योंकि बन्ध-कारण की अपेक्षा अशुभ-शुभदोनों ही समान होने पर भी अशुभ की अपेक्षा शुभ कुछ भला है। वह तीव्र कषायरूप है, यह मन्द कषायरूप है; अत: शुभ को छोड़कर अशुभ में लगना तो किसी भी अपेक्षा, किसी को भी उचित नहीं है। __ इस अनुयोग की एक यह भी पद्धति है कि इसमें जो जीव जिनबिम्ब आदि के प्रति भक्ति आदि कार्यों में ही मग्न हैं, उन्हें आत्मश्रद्धान आदि कराने के लिए देह में देव है, मंदिर में नहीं' - इत्यादि उपदेश देते हैं; परन्तु इससे ऐसा नहीं समझना कि भक्ति आदि छोड़कर, भोजन आदि से अपने को सुखी करना। इसीप्रकार अन्य व्यवहार क्रियाओं का निषेध सुनकर प्रमादी नहीं होना; क्योंकि व्यवहार-साधन में ही मग्न जीवों को निश्चय की रुचि कराने के लिए ऐसा उपदेश दिया गया है; अशुभ-प्रवर्तन के लिए नहीं।
इसीप्रकार सम्यग्दर्शन की महिमा बताने के लिए इसमें सम्यग्दृष्टि के विषय-भोगादि को बंध का कारण न कहकर, निर्जरा का कारण कहा है। उसका अभिप्राय यह है कि यद्यपि भोगादि के भाव से तीव्र बंध होता है; परन्तु श्रद्धा-शक्ति के बल से तीव्र आसक्ति/उनमें सुख-बुद्धि आदि रूप विपरीत मान्यता आदि का अभाव हो जाने के कारण भाव की मन्दता से होनेवाले मंद बंध को गौण करके नहीं गिना तथा मिथ्यात्व का अभाव हो जाने से प्रतिसमय होनेवाली संवरपूर्वक निर्जरा को मुख्य कर, भोगों को भी बंध का कारण न कहकर, उपचार से निर्जरा का कारण कह दिया है।
इसमें वास्तविकता तो यह है कि भोग का भाव निर्जरा का कारण नहीं है; मिथ्यात्व और कषाय-शक्ति का अभाव निर्जरा का कारण है। यदि भोग निर्जरा के कारण होते तो सम्यग्दृष्टि उन्हें छोड़कर मुनिपद धारण क्यों करते? अत: इस कथन का इतना ही प्रयोजन समझना कि देखो सम्यक्त्व की महिमा ! जिसके बल से भोग-भाव भी अपना कार्य करने में शिथिल हो गए हैं।
-शास्त्रों का अर्थ समझने की पद्धति/२७