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इसमें छद्मस्थ के बुद्धिगोचर, स्थूलता से लोक-प्रवृत्ति की मुख्यता सहित उपदेश देते हैं; जैसे अणुव्रती के त्रस-हिंसा का त्याग कहा; वहाँ लोक में जिसका नाम त्रस-घात है, उसे नहीं करता है - इस अपेक्षा समझना; केवलज्ञान-गोचर सूक्ष्म-अपेक्षा नहीं समझना। इसीप्रकार मुनिराजों के स्थावर-हिंसा आदि का त्याग समझना चाहिए।
इस अनुयोग के नामादि भी व्यवहार लोकप्रवृत्ति की अपेक्षा ही समझना; जैसे सम्यक्त्वी को पात्र और मिथ्यादृष्टि को अपात्र कहा है। इसमें दानादि चरणानुयोग के अनुसार होने से सम्यक्त्व, मिथ्यात्व भी चरणानुयोग के ही ग्रहण करना; करणानुयोग या द्रव्यानुयोग के नहीं; क्योंकि इनके अनुसार उनका निर्णय हो पाना कठिन है; अत: यहाँ जिसके जिनदेवादि का श्रद्धान है, वह सम्यक्त्वी और जिसके उनका श्रद्धान नहीं है, उसे मिथ्यात्वी जानना चाहिए।
इसप्रकार गहराई से चरणानुयोग की प्रतिपादन-शैली समझकर, उसका यथार्थ श्रद्धान करना चाहिए। प्रश्न १७ : द्रव्यानुयोग के व्याख्यान का विधान क्या है ? उत्तर : द्रव्यानुयोग में जीवों को जीवादि तत्त्वों का यथार्थ श्रद्धान जैसे हो, उसप्रकार विशेष युक्ति, हेतु, दृष्टान्तादि द्वारा वर्णन करते हैं; क्योंकि इसमें यथार्थ श्रद्धान कराने का प्रयोजन है। जीवादि वस्तु अभेद होने पर भी भेद-कल्पना द्वारा व्यवहार से द्रव्य-गुण-पर्यायादि भेदों का निरूपण करते हैं। प्रतीति कराने के लिए प्रमाण-नयात्मक अनेकानेक युक्तिओं द्वारा उपदेश देते हैं। वस्तु का अनुमान-प्रत्यभिज्ञान आदि कराने के लिए हेतु-दृष्टान्त आदि देते हैं। मोक्षमार्ग का श्रद्धान कराने के लिए जीवादि तत्त्वों का विशेष युक्ति, हेतु, दृष्टान्त आदि द्वारा निरूपण करते हैं। स्वपर का भेदविज्ञान जैसे हो, वैसे जीव-अजीव का; वीतराग भाव जैसे हो, वैसे आस्रवादि का वर्णन करते हैं।
इसमें निश्चय अध्यात्म उपदेश को मुख्यकर ज्ञान-वैराग्य के कारणभूत आत्मानुभव आदि की महिमा गाते हैं तथा व्यवहार कार्य का निषेध करते हैं। जो जीव आत्मानुभव का उपाय नहीं करते हैं, बाह्य क्रियाकाण्ड में ही मग्न हैं; उन्हें वहाँ से उदास कर आत्मानुभव आदि में लगाने के लिए व्रत,
-- तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २/२६ -