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________________ सम्भावना भी नहीं है, उन जीवों को तो मात्र व्यवहार का ही उपदेश देते हैं; तथा जिन जीवों को निश्चय-व्यवहार का ज्ञान है अथवा उपदेश देने पर होना सम्भव है, उन सम्यग्दृष्टि या सम्यक्त्वसन्मुख मिथ्यादृष्टि जीवों को निश्चयसहित व्यवहार का उपदेश देते हैं। ___ मात्र व्यवहार के उपदेश में सम्यग्दर्शन के लिए अरहन्त देव, निर्ग्रन्थ गुरु, दयामयी धर्म को ही मानना, अन्य को नहीं; कहे गए जीवादि तत्त्वों के व्यवहारस्वरूप का श्रद्धान करना, शंकादि पच्चीस दोष नहीं लगाना, निःशंकित आदि अंग और संवेगादि गुणों का पालन करना इत्यादि उपदेश देते हैं। सम्यग्ज्ञान के लिए जिनवाणी का स्वाध्याय करना, अर्थव्यंजन आदि ज्ञान के आठ अंगों का साधन करना इत्यादि उपदेश देते हैं। सम्यक्चारित्र के लिए एकदेश या सर्वदेश हिंसादि पापों का त्याग करना, व्रतादि अंगों का पालन करना इत्यादि उपदेश देते हैं। निश्चयसहित व्यवहार के उपदेश में सम्यग्दर्शन के लिए निश्चयव्यवहार शैली द्वारा जीवादि तत्त्वों का यथार्थ स्वरूप समझाकर, स्व-पर के भेदज्ञानपूर्वक परद्रव्य में रागादि छोड़ने के प्रयोजनसहित उन तत्त्वों के श्रद्धान का उपदेश देते हैं। इससे अरहंतादि के सिवाय अन्य देवादि मिथ्या भासित होने पर स्वयमेव उन्हें मानना छूट जाने से उनका भी निरूपण करते हैं। ___ सम्यग्ज्ञान के लिए संशयादि से रहित हो उन्हीं तत्त्वों को उसीप्रकार जानने का उपदेश देते हैं। जिनवाणी का अभ्यास इसमें कारणभूत होने से इस प्रयोजन के लिए उसमें स्वयमेव प्रवृत्ति होने के कारण इसका भी निरूपण करते हैं। ___ सम्यक्चारित्र के लिए रागादि दूर करने का उपदेश देते हैं। वहाँ एकदेश या सर्वदेश तीव्र रागादि का अभाव होने पर, उनके निमित्त से होनेवाली एकदेश व सर्वदेश पापक्रिया भी सहज छूट जाती है; मंदराग से श्रावकमुनि के व्रतों में प्रवृत्ति होती है और मन्दराग का भी अभाव होने पर शुद्धोपयोगरूप प्रवृत्ति होती है; अत: उसका भी निरूपण करते हैं। . इस अनुयोग की एक यह भी पद्धति है कि यद्यपि कषाय करना बुरा ही है; तथापि सर्व कषाय छूटते न जानकर, जितने कषाय घटें, उतना ही भला - तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २/२४ -
SR No.007197
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherA B Jain Yuva Federation
Publication Year2008
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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