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लेना चाहिए; परन्तु प्रवृत्ति तो बुद्धि - गोचर जैसे अपना भला हो, वैसी करना चाहिए।
कहीं-कहीं उपदेश की मुख्यता सहित व्याख्यान भी करणानुयोग में होता है; परन्तु उसे सर्वथा उसीप्रकार नहीं मानना चाहिए। जैसे छुड़ाने के अभिप्राय से हिंसादि के उपाय को कुमतिज्ञान कहा; अन्य मतादि संबंधी शास्त्रों के अभ्यास को कुश्रुतज्ञान कहा; बुरा दिखने, भला न दिखने को विभंगज्ञान कहा है इत्यादि । वास्तव में तो मिथ्यादृष्टि का समस्त ज्ञान कुज्ञान और सम्यग्दृष्टि का सम्पूर्ण ज्ञान सुज्ञान है।
इसीप्रकार स्थूलता और मुख्यता से किए गए अन्य कथनों को भी सर्वथा वैसा ही नहीं मान लेना चाहिए।
इत्यादि प्रकार से इसकी कथन पद्धति में विविधता है; अत: इसे गम्भीरतापूर्वक समझकर करणानुयोग का अभ्यास करना चाहिए । प्रश्न १६ : चरणानुयोग के व्याख्यान का विधान क्या है ? उत्तर : चरणानुयोग में जिसप्रकार जीवों के अपनी बुद्धिगोचर धर्म का आचरण हो, वैसा उपदेश दिया जाता है । यद्यपि वीतरागतामय निश्चयरूप मोक्षमार्ग ही वास्तविक धर्म है; शेष व्रत, शील, संयम आदि साधनादि तो उपचार से व्यवहार धर्म हैं; परन्तु वास्तविक धर्म में ग्रहण -त्याग का कुछ भी विकल्प नहीं होने से यहाँ व्यवहारनय की मुख्यता से ही कथन किया जाता है । इस अपेक्षा इसमें दो प्रकार से उपदेश दिया जाता है - १. मात्र व्यवहार का और २. निश्चयसहित व्यवहार का ।
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मात्र व्यवहार के उपदेश में तो बाह्य क्रियाओं की ही प्रधानता होती है; उनके उपदेश से जीव पाप-क्रिया छोड़कर पुण्य - क्रियाओं में प्रवृत्ति करते हैं । उससे किन्हीं के क्रिया के अनुसार परिणाम भी तीव्र कषाय से मन्द कषाय रूप हो जाते हैं। किन्हीं के परिणाम नहीं सुधरें तो नहीं भी सुधरें; परन्तु श्रीगुरु तो परिणाम सुधारने के लिए ही बाह्य क्रियाओं का उपदेश देते हैं।
निश्चय सहित व्यवहार के उपदेश में परिणामों की ही प्रधानता होती है। उसके उपदेश से तत्त्वज्ञान के अभ्यास द्वारा व वैराग्यभावना द्वारा परिणाम सुधरने पर परिणामानुसार बाह्य क्रिया भी सुधर जाती है।
जिन जीवों को निश्चय का ज्ञान नहीं है तथा उपदेश देने पर होने की -शास्त्रों का अर्थ समझने की पद्धति / २३