________________
मात्र बाह्य वेष धारण करने से भी मुनि आदि कह देते हैं इत्यादि अनेकानेक प्रकार से इसमें औपचारिक कथनों की बहुलता होती है; अत: इसकी कथन-पद्धति को गम्भीरतापूर्वक समझना चाहिए। प्रश्न १५ : करणानुयोग के व्याख्यान का विधान क्या है ? उत्तर :करणानुयोग में केवलज्ञानगम्य वस्तु का व्याख्यान है। केवलज्ञान में तो तीनकाल-तीनलोकवर्ती समस्त पदार्थ ज्ञात हुए हैं; परन्तु इसमें छद्मस्थ के ज्ञान में कुछ भाव भासित हो सके, इस रूप में जीव-कर्मादि, त्रिलोकादि का निरूपण होता है। जैसे जीव के अनन्त भाव होने पर भी, बहुत भावों की एक जाति बनाकर; चौदह गुणस्थान कहे। जीवों को जानने के अनेक प्रकार हैं; उनमें से यहाँ चौदह मार्गणाओं का निरूपण किया इत्यादि। ___ व्यवहार के बिना विशेष ज्ञात नहीं होने के कारण करणानुयोग में भी
क्षेत्र, काल, भावादि से अखंडित वस्तु का प्रमाण प्रदेश, समय, अविभाग-प्रतिच्छेदादि की कल्पना करके निरूपित करते हैं। पूर्णतया असम्बद्ध होने पर भी जीव-पुद्गल आदि के संबंध को मुख्य कर गति, जाति आदि भेदों का निरूपण करते हैं। कहीं-कहीं निश्चय वर्णन भी पाया जाता है; जैसे जीवादि द्रव्यों की संख्या वास्तव में जितनी है, उतनी ही बताई गई है इत्यादि।
करणानुयोग का जो निरूपण छद्मस्थ को प्रत्यक्ष-अनुमान आदि से ज्ञात नहीं होता है; उसे आज्ञाप्रमाणरूप में ही स्वीकार किया जाता है। ___ इसमें मुख्यतया छद्मस्थों की प्रवृत्ति के अनुसार वर्णन नहीं होता है; वरन् केवलज्ञानगम्य पदार्थों का निरूपण होता है; अत: उसके अनुसार उद्यम नहीं किया जा सकता है। इसमें आचरण कराने की मुख्यता नहीं है; वरन् यथार्थ पदार्थ बतलाने की मुख्यता रहती है; अत: स्वयं को तो द्रव्यानुयोग, चरणानुयोग के अनुसार प्रवर्तन करना चाहिए; उससे जो कार्य होता है, वह स्वयमेव हो जाता है। ___ जैसे कोई कर्मादि के उपशमादि करना चाहेगा तो कैसे करेगा ? स्वयं तो तत्त्वादि का निश्चय करने का उद्यम करे; उससे उपशमादि सम्यक्त्व स्वयमेव हो जाता है। इसप्रकार करणानुयोग से जैसे का तैसा जान तो
तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २/२२ -