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________________ मनोवेग ने कही थीं - ऐसा नियम नहीं है; परन्तु मूर्खता की पोषक ही कही थीं; अतः ग्रन्थकर्ता ने भी वैसी ही लिख दीं। यदि कोई धर्मबुद्धिं से कुछ अनुचित कार्य भी करता है तो प्रथमानुयोग में उसकी भी प्रशंसा कर देते हैं; जैसे विष्णुकुमारजी ने धर्मानुराग से मुनिपद छोड़कर भी मुनिराजों का उपसर्ग दूर किया । यहाँ यद्यपि मुनिपद छोड़ना और कंषायादिमय कार्य करना उचित नहीं है; तथापि वात्सल्य अंग की प्रधानता से विष्णुकुमारजी की भी प्रशंसा की गई। इसे प्रथमानुयोग की शैली समझकर उसका अनुकरण नहीं करना; क्योंकि ऊँचाधर्म छोड़कर, नीचाधर्म अंगीकार करना उचित नहीं है। शीतकाल में ग्वाले ने करुणाबुद्धि से मुनिराज को तपाया - यह कार्य उपसर्ग का कार्य है, विवेकी ऐसा कार्य नहीं करते हैं; ग्वाला अविवेकी होने से उसने यह कार्य कर लिया; प्रथमानुयोग में उसकी प्रशंसा भी की गई है; परन्तु अन्य को इसका अनुसरण करना योग्य नहीं है। इसीप्रकार पुत्रादि की प्राप्ति के लिए या रोग-कष्टादि को दूर करने के लिए स्तुति - पूजनादि कार्य करना कांक्षा नामक दोष और निदान नामक आर्तध्यान होने से यद्यपि पापबंध का कारण है; तथापि मोहित होकर बहुत पापबंध के कारणभूत कुदेवादि का सेवन नहीं करने के कारण उसकी भी प्रशंसा प्रथमानुयोग में कर दी जाती है; परन्तु उसका अनुसरण कर अन्य को लौकिक कार्यों के लिए धर्म-साधन करना उचित नहीं है। इसीप्रकार प्रथमानुयोग में जिसकी मुख्यता हो, उसी का पोषण करते हैं; जैसे किसी ने शीलादि की प्रतिज्ञा दृढ़ रखी, नमस्कार मंत्र का स्मरण किया; उससमय कुछ अतिशय प्रगट हुए। यद्यपि यह अन्य किन्हीं पूर्वकृत पुण्य परिणामों से बँधे पुण्यकर्म के उदय का फल भी हो सकता है; तथापि वहाँ उन्हें शीलादि या नमस्कार मंत्र का फल बता देते हैं। इसीप्रकार किसी पाप करनेवाले को नीचगति या कष्ट आदि मात्र उसी पाप के फल में प्राप्त नहीं हुए हैं; वरन् अन्य-अन्य कर्मों के फल में प्राप्त हुए हैं; तथापि उसे उसी एक पाप का फल बता देते हैं । इस अनुयोग में धर्म का एक अंग होने पर सम्पूर्ण धर्म हुआ कह देते हैं; -शास्त्रों का अर्थ समझने की पद्धति / २१
SR No.007197
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherA B Jain Yuva Federation
Publication Year2008
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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