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________________ कारण-कार्यपना होने से व्रतादि को मोक्षमार्ग कहना, व्यवहार का औपचारिक कथनमात्र होने के कारण व्यवहार अनुसरण करने-योग्य नहीं है अर्थात् परमार्थ से बाह्य क्रिया को मोक्षमार्ग नहीं मानकर, एक वीतरागभाव मय सम्यक् रत्नत्रय को ही मोक्षमार्ग मानना, व्यवहारनय का निषेध है। इसप्रकार निश्चय का प्रतिपादक होने पर भी व्यवहारनय औपचारिक कथन करनेवाला होने से तथा औपचारिक कथन को सत्य मानना अनन्त दु:खमय मिथ्यात्व होने से व्यवहार अनुसरण करने योग्य नहीं है; वरन् निषेध करने-योग्य ही है। प्रश्न ११ : निश्चय-व्यवहार संबंधी प्रतिपादन के सन्दर्भ में हमें कैसा जानना चाहिए ? उत्तर : जिनवाणी में निश्चयनय की मुख्यता से जो कथन किया गया हो, उसे तो यह सत्यार्थ है, वास्तव में ऐसा ही है' - ऐसा जानना चाहिए तथा व्यवहारनय की मुख्यता से जो कथन किया गया हो, उसे 'यह असत्यार्थ है, वास्तव में ऐसा नहीं है, निमित्तादि की अपेक्षा उपचार से ऐसा कहा गया है' - ऐसा जानना चाहिए। यही इन दोनों नयों संबंधी सच्ची समझ है। प्रश्न १२ : व्यवहारनय, मात्र पर को उपदेश देने के लिए ही कार्यकारी है या अपना भी कुछ प्रयोजन सिद्ध करता है ? उत्तर : व्यवहारनय, मात्र पर को उपदेश देने के लिए ही कार्यकारी नहीं है; वरन् अपना भी प्रयोजन सिद्ध करता है। स्वयं को भी जबतक निश्चयनय से प्ररूपित वस्तु की पहिचान नहीं हुई हो; तबतक व्यवहार द्वारा वस्तु का निश्चय करना चाहिए; इसप्रकार निचली दशा में व्यवहारनय स्वयं लो भी कार्यकारी है। प्रश्न १३:व्यवहारनय द्वारा वस्तु को समझते-समझाते समय क्या सावधानी रखनी चाहिए? उत्तर : व्यवहार द्वारा वस्तु को समझते या समझाते समय यह बात ध्यान में रखना अत्यन्त आवश्यक है कि यदि व्यवहार को उपचारमात्र मानकर उसके द्वारा वस्तु को ठीक समझे, तब तो वह कार्यकारी है और यदि निश्चय के समान व्यवहार को भी सत्यभूत मानकर वस्तु ऐसी -शास्त्रों का अर्थ समझने की पद्धति/१९
SR No.007197
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherA B Jain Yuva Federation
Publication Year2008
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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