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यह कथन संयोग की अपेक्षा किया गया औपचारिक कथन ही समझना, वास्तविक नहीं; क्योंकि यह पर्याय तो जीव-पुद्गल के संयोगरूप है। इसे वास्तविक जीव मानना तो जिनवाणी में मिथ्यात्व कहा गया है। वास्तविक जीवतोइस पर्याय से भिन्न एकत्व-विभक्त ज्ञायकस्वभावी शाश्वत अनंतानंत शक्ति-संपन्न भगवान आत्मा है; इसे ही जीव मानना सम्यक् श्रद्धान है।
इसप्रकार व्यवहार द्वारा बताया गया असमानजातीय द्रव्यपर्यायरूप जीव वास्तविक जीव नहीं होने के कारण, व्यवहार अनुसरण करने योग्य नहीं है अर्थात् स्वयं को मनुष्य आदि पर्यायरूप नहीं मानकर ज्ञानानन्दस्वभावी शाश्वतसत्ता सम्पन्न मानना ही, व्यवहार का निषेध है। २. व्यवहारनय ने ज्ञान-दर्शन आदि भेदकर जाननेवाला आत्मा, देखने वाला आत्मा - ऐसा कहा था; परन्तु यह कथन संज्ञा-संख्या आदि भेद
की अपेक्षा किया गया औपचारिक कथन ही समझना, वास्तविक नहीं; " क्योंकि भेद तो मात्र समझने-समझाने के लिए किए जाते हैं। आत्मा को
वास्तव में भेदरूप मानना तो जिनवाणी में मिथ्यात्व कहा गया है। वास्तविक आत्मा तो भेदाभेद आदि अनन्तधर्मों, स्वभावों, शक्तिओं, गुणों का अभेद/अखण्ड पिण्ड है - ऐसा मानना ही सम्यक् श्रद्धान है।
इसप्रकार वास्तविक आत्मा व्यवहार द्वारा बताए गए भेद-प्रभेदवाला नहीं होने से, व्यवहार अनुसरण करने-योग्य नहीं है अर्थात् स्वयं को भेद रूप नहीं मानकर अभेद अखण्डपिण्ड मानना ही, व्यवहारनय का निषेध है। ३. व्यवहारनय ने व्रत, शील, संयम आदि को मोक्षमार्ग कहा था; परन्तु यह कथन परद्रव्य का निमित्त मिटने की अपेक्षा किया गया औपचारिक कथन ही समझना, वास्तविक नहीं; क्योंकि यदि आत्मा के परद्रव्य का ग्रहण-त्याग हो तो वह परद्रव्य का कर्ता-हर्ता हो जाए ! वास्तव में तो प्रत्येक द्रव्य स्वयं में पूर्णतया स्वतंत्र, त्यागोपादानशून्यत्व शक्तिसम्पन्न है; अत: आत्मा को वास्तव में परद्रव्य के ग्रहण-त्याग वाला मानना, जिनवाणी में मिथ्यात्व कहा गया है। आत्मा तो वास्तव में पर के लक्ष्य से होनेवाले अपने रागादि भावों को छोड़कर वीतरागी होता है; उस वीतराग भाव को ही मोक्षमार्ग मानना सम्यक् श्रद्धान है। वीतरागभाव के और व्रतादि के कदाचित् निमित्त-नैमित्तिकरूप
- तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २/१८