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अखण्ड पिण्ड है; परन्तु जो इसे नहीं पहिचानते हैं, उनसे ऐसा ही कहते रहने पर वे इस संबंध में कुछ भी नहीं समझ पाते हैं। उन्हें समझाने के लिए व्यवहारनय अभेद/अखण्ड वस्तु में भेद उत्पन्न कर ज्ञान-दर्शनादि गुण-पर्यायरूप आत्मा के विशेष कर जाननेवाला जीव, देखनेवाला जीव इत्यादि रूप में आत्मा का प्रतिपादन करता है; तब उन्हें आत्मा की पहिचान होती है। ३. कारण के अनुसार ही कार्य होने से श्रद्धा-ज्ञान-चारित्र आदि अनन्त वैभव-सम्पन्न आत्मा को अपनत्वरूप से मानकर, जानकर, उसमें स्थिरता रूप सम्यक्चारित्रमय वीतरागभाव/सम्यक् रत्नत्रय ही आत्मा की दु:खों से मुक्ति का उपाय है/सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की एकता ही मोक्षमार्ग है; परन्तु जो इसे नहीं पहिचानते हैं, उनसे ऐसा ही कहते रहने पर वे इस संबंध में कुछ भी नहीं समझ पाते हैं। ___ उन्हें समझाने के लिए व्यवहारनय तत्त्वार्थश्रद्धान-ज्ञानपूर्वक परद्रव्य का निमित्त मिटने की सापेक्षता द्वारा व्रत, शील, संयम आदिरूप वीतराग भाव के विशेष कर मोक्षमार्ग का प्रतिपादन करता है; तब उन्हें वीतरागभाव रूप मोक्षमार्ग की पहिचान होती है।
इत्यादि रूप में उपर्युक्त कथन से यह स्पष्ट है कि व्यवहार नय के बिना परमार्थ/निश्चय का प्रतिपादन सम्भव नहीं है। प्रश्न १०: यदि व्यवहारनय के बिना परमार्थ का प्रतिपादन सम्भव नहीं है; तब फिर इतना महत्त्वपूर्ण कार्य करनेवाले व्यवहारनय का अनुसरण क्यों नहीं करना चाहिए ? उसके द्वारा प्रतिपादित वस्तु को उसी रूप में मान लेने का निषेध क्यों किया जाता है ? उत्तर : व्यवहारनय के द्वारा प्रतिपादित वस्तु वास्तव में वैसी नहीं होने से, व्यवहारनय निमित्त या संयोगादि की अपेक्षा औपचारिक कथन करनेवाला होने से, वास्तव में ऐसा ही मान लेना मिथ्यात्व का पोषक होने से, उसके अनुसरण का निषेध किया जाता है। निश्चय इसीकारण व्यवहार का निषेध करता है। व्यवहार और निश्चय में निषेध्य-निषेधक संबंध है। पूर्वोक्त तीनी उदाहरणों द्वारा ही इस बात को स्पष्ट करते हैं - १. व्यवहारनय ने नर-नारक आदि पर्याय को ही जीव कहा था; परन्तु
----- शास्त्रों का अर्थ समझने की पद्धति/१७ -