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________________ के आधार पर जाननेवाला जीव, देखनेवाला जीव इत्यादि रूप में जीव का निरूपण करता है: वहीं निश्चयनय अभेदरूप में जीव का निरूपण करता है। ३. व्यवहारनय तत्त्वश्रद्धान-ज्ञानपूर्वक परद्रव्य का निमित्त मिटने की सापेक्षता द्वारा व्रत, शील, संयम आदि को मोक्षमार्ग कहता है; वहीं निश्चयनय एकमात्र वीतरागभाव को ही मोक्षमार्ग कहता है। इसप्रकार मुख्यतया तीनरूपों में व्यवहार - निश्चय की निरूपणपद्धति प्रसिद्ध है। प्रश्न ८ : ऐसे मिलावटवाला कथन करनेवाले व्यवहार को जिनवाणी में स्थान क्यों मिला ? उत्तर : जैसे अनार्य को उसकी अनार्य भाषा में ही बोले बिना उसे कुछ भी समझाना सम्भव नहीं है; उसीप्रकार असत्यार्थ होने पर भी निश्चय का प्रतिपादक होने से व्यवहार के बिना परमार्थ / निश्चय का उपदेश अशक्य होने के कारण, मिलावटवाला कथन करनेवाले व्यवहार को भी जिनवाणी में स्थान मिल गया है। प्रश्न ९ : व्यवहार के बिना परमार्थ / निश्चय का उपदेश कैसे अशक्य है ? उत्तर : व्यवहारनय निश्चय का प्रतिपादक होने से अर्थात निश्चय और व्यवहार में प्रतिपाद्यप्रतिपादक संबंध होने से व्यवहार के बिना निश्चय का प्रतिपादन सम्भव नहीं है। पूर्वोक्त तीनों उदाहरणों द्वारा ही इस बात को स्पष्ट करते हैं — १. प्रत्येक वस्तु ही अनादि अनंत परद्रव्यों से भिन्न, स्वभावों से अभिन्न, स्वयंसिद्ध एकत्व - विभक्तमय होने के कारण आत्मा भी वास्तव में सदैव परद्रव्यों से भिन्न, स्वभावों से अभिन्न स्वयंसिद्ध वस्तु है; परन्तु जो इसे नही पहिचानते हैं, उनसे इसीप्रकार कहते रहने पर वे इस संबंध में कुछ भी नही समझ पाते हैं। उन्हें समझाने के लिए व्यवहारनय शरीरादि परद्रव्यों की सापेक्षता द्वारा नर, नारक, पृथ्वीकायादि आत्मा / जीव के विशेष कर मनुष्य, नारकी, पृथ्वीकायिक जीव इत्यादि रूप में जीव का प्रतिपादन करता है: तब उन्हें आत्मा की पहिचान होती है। २. प्रत्येक वस्तु ही अनादि-अनन्त अपने अनंत गुण- पर्यायों की अखण्ड पिण्ड होने से आत्मा भी अनादि - अनन्त अपने अनंत गुण-पर्यायों क तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २ /१६
SR No.007197
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherA B Jain Yuva Federation
Publication Year2008
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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