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या मिथ्यात्व बैरी का अंश कहते हैं। जबतक यह पूर्णतया नष्ट नहीं होता, तबतक पूर्वोक्त दो प्रकार का परिवर्तन भी स्थाई नहीं रह पाता है; अत: अन्तरोन्मुखी, पक्षातिक्रान्त, अंतरंगवृत्तिमय तीव्र पुरुषार्थपूर्वक भेदविज्ञान द्वारा इसे पहिचानकर नष्ट करने का पुरुषार्थ करना चाहिए। प्रश्न ५ : जिनवाणी का अर्थ समझने की पद्धति क्या है ? उत्तर :सम्पूर्ण जिनवाणी निश्चय-व्यवहार आदिनयों की शैली में लिखी गई है; इसीप्रकार स्वाध्यायिओं की विभिन्न योग्यताओं और रुचिओं के कारण जिनवाणी को चार अनुयोगों में विभक्त करके लिखा गया है। प्रत्येक अनुयोग की अपनी-अपनी पृथक्-पृथक् पद्धति है। इन नयों और अनुयोगों की कथन-पद्धति को समझना ही इनका अर्थ समझने की पद्धति है। प्रश्न ६ : निश्चय-व्यवहार नय का सामान्य स्वरूप स्पष्ट कीजिए। उत्तर : ये दोनों एक श्रुतज्ञानरूप प्रमाण के अंश हैं। अनन्त धर्मात्मक वस्तु में से अन्य को गौणकर वस्तु के यथार्थस्वरूप को जाननेवाला ज्ञान निश्चय तथा औपचारिक स्वरूप को जाननेवाला ज्ञान व्यवहार है अथवा एक ही द्रव्य के भाव को उस स्वरूप ही जानना, निश्चय तथा उस द्रव्य के भाव को अन्य द्रव्य के भाव स्वरूप जानना, व्यवहारनय है। पर से पूर्णतया भिन्न
और स्वयं से अभिन्न वस्तु को जाननेवाला ज्ञान, निश्चय तथा पर के साथ - अभेद और स्वयं में भेदपूर्वक वस्तु को जानने-वाला ज्ञान, व्यवहार नय
कहलाता है। प्रश्न ७: व्यवहार-निश्चय की निरूपण-पद्धति लिखिए। उत्तर :व्यवहारनय स्वद्रव्य-परद्रव्य, उनके भावों और कारण-कार्य आदि में से किसी को किसी में मिलाकर निरूपण करता है; निश्चयनय इससे विपरीत उन्हीं का यथावत् निरूपण करता है, किसी को किसी में नहीं मिलाता है; जैसे१. व्यवहारनय शरीरादि परद्रव्यों की सापेक्षता द्वारा नर-नारक आदि रूप में जीव के विशेष करके मनुष्य जीव, नारकी जीव इत्यादि रूप में जीव का निरूपण करता है। वहीं निश्चयनय परद्रव्यों से भिन्न, स्वयं से अभिन्न, स्वयंसिद्ध ज्ञान-दर्शनमय वस्तु को जीव कहता है। २. व्यवहारनय जीव में भेद उत्पन्न कर ज्ञान आदि गुण-पर्यायरूप भेदों
-शास्त्रों का अर्थ समझने की पद्धति/१५