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फूल-फल रहा है। इस मूल को निर्मूल/नष्ट करने पर ही संसार वृक्ष का सूखना/मोक्ष का उपाय प्रारम्भ होता है। प्रश्न ३: जिनवाणी में मिथ्यात्वपोषक बात तो होती नहीं है; तब फिर जो जीव जैन हैं, जिन-आज्ञा को मानते हैं, उनके मिथ्यात्व कैसे रह सकता है? उत्तर : यद्यपि जिनवाणी में मिथ्यात्वपोषक कोई भी बात नहीं है; तथापि उसका अर्थ/अभिप्राय समझने की एक पद्धति है। जो उसे नहीं समझते हैं; वे उसके मर्म को नहीं समझ पाते हैं; अपनी कल्पना से उसे अन्यथा ही समझ लेते हैं; अत: उनका मिथ्यात्व नष्ट नहीं हो पाता है। प्रश्न ४: मिथ्यात्व का अंश या सूक्ष्म मिथ्यात्व किसे कहते हैं ? उत्तर : मिथ्यात्वतोवास्तवमें मिथ्यात्वही होता है, उसमें कोई अंश, अंशी या सूक्ष्म, स्थूल का भेद नहीं होता है। वह तो आत्मा के श्रद्धा आदि गुणों की एक अखण्ड विकृत, विपरीत, तत्त्व-अश्रद्धान आदि रूप या विपरीतअभिनिवेश आदि मय पर्याय है; परन्तु समझने-समझाने की अपेक्षा उसमें अंश, स्थूल, सूक्ष्म आदि भेद बन जाते हैं। वे इसप्रकार हैं___ आत्मा में मिथ्यात्व परिणाम होने पर सहज बननेवाले निमित्त-नैमित्तिक संबंध के कारण उसकी शारीरिक प्रवृत्तिओं आदि से जिस मिथ्यात्व का अनुमान हो जाता है, उसे अति स्थूल या तीव्रतम मिथ्यात्व कह देते हैं; जैसे पीर, पैगम्बर, तुलजा, भवानी, क्षेत्रपाल, पद्मावती आदि को देव मानकर पूजता हुआ देखकर उस जीव को मिथ्यादृष्टि कह देना आदि।
कोई मिथ्यात्वपरिणामऐसा होता है, जोअन्य देवी-देवताओं को पूजने आदि रूप में तो व्यक्त नहीं होता है; पर उसके साथ चर्चा-वार्ता करने पर तत्त्व संबंधी विपरीतता आदि के रूप में व्यक्त हो जाता है, वह स्थूल या तीव्र मिथ्यात्व कहलाता है। __ कोई मिथ्यात्वपरिणामऐसा होता है; जो अन्य देवी-देवताओंको पूजने
आदि के रूप में तो व्यक्त होता ही नहीं है; उस परिणाम का धारक जीव जिनवाणी का गहन अभ्यासी होने के कारण जिनवाणी के अनुसार ही चर्चा-वार्ता करता होने से वचनात्मक तत्त्व-विपरीतता के रूप में भी व्यक्त नहीं होता है; परन्तु अंतरंग अभिप्राय में विद्यमान रहता है; तीव्रतम अन्तरोन्मुखी वृत्ति द्वारा ही जिसे पहिचाना जा सकता है; उसे सूक्ष्ममिथ्यात्व
तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २/१४