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की योग्यता के अनुसार उन्होंने जिस त्रैकालिक सत्य को उद्घाटित किया था, जिस सर्वोदयी - तीर्थ का प्रस्फुटन किया था; उसका विस्तृत विवेचन आचार्यों की कृपा दृष्टि से चार अनुयोगों में विभक्त हो लिपिबद्धरूप में आज हमें भी उपलब्ध है। जिसका संक्षिप्त-सार इसप्रकार है
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प्रत्येक आत्मा स्वतंत्र है । कोई किसी के अधीन नहीं है। सभी आत्माएं समान हैं। कोई छोटा-बड़ा नहीं है। प्रत्येक आत्मा स्वयं अनन्त ज्ञान, सुख आदि अनन्त गुणों का अखंड पिंड है। ज्ञान, सुख कहीं बाहर से नहीं आते हैं। आत्मा ही नहीं वरन् प्रत्येक पदार्थ स्वयं स्थाईत्व के साथ परिणमनशील है । उसके परिणमन में पर-पदार्थ का कुछ भी हस्तक्षेप नहीं है । जीव स्वयं अपनी भूल से ही दुखी है और स्वयं ही भूल सुधारकर सुखी हो सकता है। स्वयं को नहीं पहिचानना ही सबसे बड़ी भूल है तथा अपना सही स्वरूप समझ कर उसमें ही संतुष्ट / लीन रहना ही भूल सुधारना है।
भगवान कोई पृथक् नहीं होते हैं । प्रत्येक जीव भगवत्-स्वरूप है। यदि वह सही दिशा में पुरुषार्थ करे तो पर्याय में भी भगवान बन जाता है। स्वयं को अपनत्वरूप से जानकर, पहिचानकर, स्वयं में ही समा जाना भगवान बनने का उपाय है। भगवान जगत के कर्ता-धर्ता नहीं हैं। वे तो समस्त विश्व के मात्र ज्ञाता - दृष्टा हैं। जो समस्त विश्व को जानकर उससे पूर्ण अलिप्त, वीतराग रह सके या पूर्णरूप से अप्रभावित रहकर जान सके, वही भगवान है।
आचार्य समंतभद्र स्वामी ने भगवान महावीर के उपदेश को सर्वोदयी तीर्थ कहा है। वे अपने युक्त्यनुशासन ग्रंथ में लिखते हैं“सर्वांतवत् तद्गुणमुख्यकल्पं, सर्वांतशून्यं च मिथोऽनपेक्षम् । सर्वापदामन्तकरं निरन्तं, सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव ॥ ६२ ॥ हे भगवन! सभी धर्मों से सम्पन्न आपके सर्वोदय तीर्थ में मुख्य-गौण की विवक्षा से कथन करने पर किसी भी प्रकार का कहीं भी विरोध नहीं आता है। अन्य वादिओं के कथन निरपेक्ष होने से समग्र वस्तु-स्वरूप का प्रतिपादन करने में असमर्थ हैं । आपका शासन / तत्त्वोपदेश समस्त आपदाओं का अंत करने में और समस्त संसारी प्राणिओं को संसारसागर से पार करने में समर्थ है; अत: सर्वोदयी तीर्थ है । ' तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २ / २०४
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