SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 210
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जिसमें सबका उदय हो, वही सर्वोदय है । तीर्थंकर महावीर ने जिस सर्वोदय तीर्थ का प्रणयन किया, उसके जिस धर्म-तत्त्व को लोक के सामने रखा; उसमें किसी भी प्रकार की संकीर्णता या सीमा नहीं है। आत्मधर्म सभी आत्माओं के लिए है। धर्म को मात्र मानव से जोड़ना भी एक प्रकार की संकीर्णता है। वह तो समस्त चेतन जगत से संबंधित है; क्योंकि सभी प्राणी सुख और शांति से रहना चाहते हैं। इसप्रकार भगवान महावीरस्वामी ने पर- पदार्थ के हस्तक्षेप से रहित, सर्व सत्ताओं की पूर्ण स्वतंत्रता, स्वावलम्बनमय आत्मधर्म का उपदेश प्राणीमात्र को दिया था । उनके उपदेश को विस्तार से जानने के लिए चार अनुयोगों में निबद्ध उपलब्ध जैन साहित्य का गहराई से अध्ययन करना चाहिए। अर्हन्महानदस्य सदा सेवनीय 'अनुपम' सुतीर्थ त्रिभुवनभव्यजनतीर्थयात्रिकदुरितप्रक्षालनैककारण-मतिलौकिक- कुहकतीर्थमुत्तमतीर्थम् ॥२३॥ लोकालोक - सुतत्त्व - प्रत्यवबोधन- समर्थदिव्यज्ञानप्रत्यह-वहत्प्रवाहं व्रत- शीलामल - विशाल- कूलद्वितयम् ।।२४। शुक्लध्यानस्तिमित-स्थितराजद्राजहंस -राजितमसकृत् । स्वाध्यायमन्द्रघोषं नानागुणसमितिगुप्तिसिकतासुभगम् ।।२५।। क्षान्त्यावर्तसहस्रं सर्वदयाविकचकुसुमविलसितलतिकम् । दुःसह - परीषहाख्य व्यपगतकषायफेनं द्रुततररङ्गत्तरंग - भङ्गुरनिकरम् ॥२६॥ रागद्वेषादि - दोषशैवलरहितं । अत्यस्तमोहकर्दम - मतिदूरनिरस्त - मरण मकरप्रकरम् ॥२७॥ ऋषिवृषभस्तुतिमन्द्रोद्रेकितनिर्घोषविविध-विहगध्वानम् । विविधतपोनिधिपुलिनं सास्रवसंवरणनिर्जरानिः स्रवणम् ॥२८॥ गणधर - चक्रधरेन्द्रप्रभृति महाभव्यपुण्डरीकैः पुरुषैः । बहुभिस्नातुं भक्त्या कलिकलुषमलापकर्षणार्थममेयम् ॥ २९ ॥ अवतीर्णवतः स्नातुं ममापि दुस्तर - समस्त-दुरितं दूरम् । व्यपहरतु परम पावन - मनन्यजय्य - स्वभावगम्भीरम् ॥३०॥ - - - - तीर्थंकर भगवान महावीर / २०५ - श्री चैत्यभक्ति
SR No.007197
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherA B Jain Yuva Federation
Publication Year2008
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy