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को नहीं पाने पर स्वाध्याय में संलग्न पिता सिद्धार्थ से वर्धमान के संबंध में पूछा। उन्होंने बिना गर्दन उठाए ही कह दिया 'नीचे' ।
माँ और पिता के परस्पर विरुद्ध कथनों को सुनकर बालक असमंजस में पड़ गए। अंततः होंने एक-एक मंजिल खोजना प्रारम्भ किया और चौथी मंजिल पर वर्धमान को विचार - मग्न बैठे पाया । सब साथिओं ने उलाहने के स्वर में कहा 'तुम यहाँ छिपे -छिपे दार्शनिकों की -सी मुद्रा में बैठे हो और हमने सातों मंजिलें छान डालीं ।'
माँ से क्यों नहीं पूछा ? वर्धमान ने सहज प्रश्न किया। साथी बोले 'पूछने से ही तो सब गड़बड़ हुआ है'। माँ कहती हैं 'ऊपर' और पिताजी 'नीचे' । कहाँ खोजें ? कौन सत्य है ?
वर्धमान ने कहा 'दोनों सत्य हैं'। मैं चौथी मंजिल पर होने से माँ की अपेक्षा 'ऊपर' और पिताजी की अपेक्षा 'नीचे' हूँ; क्योंकि माँ पहली मंजिल पर है और पिताजी सातवीं मंजिल पर ऊपर-नीचे की स्थिति सापेक्ष होती है। बिना अपेक्षा ऊपर-नीचे का प्रश्न ही नहीं उठता है। वस्तु की स्थिति पर से निरपेक्ष होने पर भी उसका कथन सापेक्ष होता है। इत्यादि उदाहरणों से स्पष्ट है कि बालक वर्धमान गहन सिद्धान्तों को भी अत्यंत सहज-सरल कर समझा देते थे ।
प्रश्न ६ : भगवान महावीर के मुख्य उपदेश क्या-क्या हैं ? उत्तर : श्रावण कृष्णा प्रतिपदा को देशना प्रारम्भ होने के बाद से कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी अर्थात् लगभग ३० वर्ष पर्यंत प्रतिदिन प्रातः, मध्यान्ह, अपरान्ह और अर्ध रात्रि - इसप्रकार ४ बार छह-छह घड़ी पर्यंत अर्थात् प्रतिदिन ९ घंटे ३६ मिनिट पर्यंत तीर्थंकर भगवान महावीर की दिव्यध्वनि खिरा करती थी । जिसमें निरक्षरी ओं ध्वनि के माध्यम से प्रतिसमय समग्र विश्व-व्यवस्था, वस्तु - व्यवस्था का सहज प्रतिपादन होता था । सम्पूर्ण द्वादशांग वाणी उसका ही सार है।
यद्यपि अन्य तीर्थंकरों के समान भगवान महावीर की वाणी में भी जो कुछ आया था, वह कोई नया सत्य नहीं था । सत्य में नये-पुराने का भेद कैसा ? उन्होंने जो भी बताया है, वह सदा से / सनातन है और सदा रहेगा । उन्होंने सत्य की स्थापना नहीं की थी, उद्घाटन किया था। देश-काल तीर्थंकर भगवान महावीर / २०३