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पाए हैं। यदि एक बार अपने को जान लेता, अपने को जीत लेता तो ज्ञानानन्दमय हो जाता; भवभ्रमण से छूटकर भगवान बन जाता।
यदि हाथी को वश में कर लेना ही वीरता हो तो सभी महावत वीर ही होंगे। वे तो हाथिओं पर सदा अनुशासन भी करते हैं; परन्तु दूसरों पर
अनुशासन करना कोई बड़ी बात नहीं है। बड़ी बात तो आत्मानुशासन है। अपने पर अनुशासन करने वालों ने ही अपने को पाया है। ३. शंका का समाधान हो जाने के कारण संजय-विजय नामक दो चारण ऋद्धिधारी मुनिओं द्वारा सन्मति' शब्द से सम्बोधित किए जाने की चर्चा ज्ञात होने पर उन्होंने कहा कि स्वयं ज्ञानस्वरूप होने से अपना आत्मा ही सर्वसमाधान कारक है। दूसरों को देखना-सुनना तो निमित्तमात्र है। मुनिराजों की शंकाओं का समाधान स्वयं उनके अंदर से हुआ है। वे उस समय मुझे देख रहे थे; अत: मुझे देखने पर आरोप आ गया; यदि सुन रहे होते तो सुनने पर आरोप आ जाता। ज्ञान तो अंदर से ही आता है, किन्हीं पर-पदार्थों में से नहीं आता है।
दूसरी बात यह भी तो है कि मैं यदि ‘सन्मति' हूँ तो अपनी सद्बुद्धि के कारण; तत्त्वार्थों का सही निर्णय करने के कारण हूँ; न कि मुनिराजों की शंका के समाधान के कारण। यदि किसी जड़ पदार्थ को देखकर किसी को ज्ञान हो जाए तो क्या उस जड़ पदार्थ को भी सन्मति' कहा जाएगा? ज्ञान का निमित्त तो जड़ भी हो सकता है, होता है। पाँचों द्रव्य-इन्द्रियाँ जड़ हैं, भाषा जड़ है, कागज-स्याही के परिणमन रूप पुस्तकें भी जड़ हैं; तथापि ज्ञान में निमित्त तो हो ही जाती हैं तो क्या इन्हें भी सन्मति कहा जा सकता है ?
मैं अपने सम्यग्ज्ञान के कारण सन्मति हूँ, दूसरों की शंका का समाधान -कर्ता होने के कारण नहीं। हमें औपचारिक/व्यावहारिक कथनों का रहस्य भली-भाँति समझना चाहिए। ४. एक बार राजकुमार वर्धमान राजमहल की चौथी मंजिल पर एकांत में विचार-मग्न बैठे थे। मिलने को आए बाल-साथिओं द्वारा वर्धमान के संबंध में पूछे जाने पर गृहकार्य में संलग्न माँ ने सहज ही कह दिया 'ऊपर' ।सब बालक चढ़ते-हाँफते सातवीं मंजिल पर पहुंचे। वहाँवर्धमान
- तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २/२०२ -