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३६००० आर्यिकाएँ, एक लाख श्रावक और तीन लाख श्राविकाएं उनके समवसरण में धर्म-लाभ लेती थीं। देव आदि रूप में तो उनके अनुयायिओं की संख्या अगणित थीं। श्री ‘तिलोयपण्णत्ति' के अनुसार समवसरण में पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण जीव जिन भगवान के वंदनार्थ प्रवृत्त होते हुए स्थित रहते हैं ।
प्रश्न ५ : कुमार वर्धमान बाल्यावस्था में महत्त्वपूर्ण दार्शनिक सिद्धान्तों को बातों ही बातों में कैसे समझा देते थे ?
उत्तर : वस्तु-स्वातंत्र्य-सम्पन्न धार्मिक वृत्तिवान होने से बालक वर्धमान अल्पवय में भी प्रत्येक घटना को इसी दृष्टि से देखते थे। यही कारण है कि उनके साथ वार्तालाप में सहज ही अनेकानेक दार्शनिक सिद्धान्त • स्पष्ट हो जाते थे । इसके कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं
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१. नागराज बनकर परीक्षा लेने के बाद संगम देव द्वारा 'वीर' की उपाधि से सम्बोधित किए जाने पर उन्होंने कहा - इसमें वीरता की क्या बात है ? क्या साँप से न डरना ही वीरता और महावीरता है ? क्या अब दुनियाँ में वीरता की कषौटी यही रह गई है ? यदि हाँ ! तो फिर सभी सपेरे महावीर हैं।
तुम आए तो थे मेरी परीक्षा लेने ! और अब मुझे 'वीर' का प्रमाणपत्र भी दे रहे हो !! पर मुझे आपके प्रमाण-पत्र की आवश्यकता नहीं है। क्या भविष्य में वीरता प्रमाण-पत्रों से ही चलेगी ? यदि जाँचना है तो अपने को जाँचो, परखना है तो अपने को परखो; पर को क्यों परखते हो ? सब दूसरों को ही परखना चाहते हैं, दूसरों को ही जानना चाहते हैं । आत्मा का स्वभाव स्व-पर प्रकाशक है । 'स्व' को पहले जानो; तत्पश्चात् 'पर' का ज्ञान भी हो जाएगा।
२. मदोन्मत्त हाथी को वश में कर लेने पर जनता द्वारा 'अतिवीर' उपाधि से सम्बोधित किए जाने के प्रसंग में उन्होंने कहा - साधारण पशुओं को जीतने में कौन सी वीरता की बात है ? अपने को जीतना ही सच्ची वीरता है। मोह-राग-द्वेष को जीतना ही अपने को जीतना है। दूसरों को तो इस जीव ने अनेकों बार जीता है, पर अपने को नहीं जीता। दूसरों को जानने और जीतने में अनन्त भव खोने के बाद भी इस जीव ने अनन्त दुःख हो तीर्थंकर भगवान महावीर / २०१