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तीसरी पीठिका के ऊपर निर्मित अष्ट प्रातिहार्यों सहित गंधकुटी के उत्कृष्टतम सिंहासन पर चार अंगुल ऊपर रह तीर्थंकर भगवान पूर्व या उत्तर की
ओर मुख कर विराजमान रहते हैं; परन्तु सातिशयता के कारण उनका मुख सभी ओर दिखाई देता है।
समवसरण की आठवीं सद्गेण भूमि में बारह सभाएँ होती हैं। जहाँ बैठकर भव्य जीव दिव्यध्वनि-श्रवण करते हैं। उनमें बैठनेवाले जीवों का क्रम इसप्रकार है- भगवान के दाहिनी ओर से १. गणधर आदि सभी मुनि -राज, २. कल्पवासिनी देविआँ, ३. आर्यिकाएं तथा सभी मनुष्य स्त्रिआँ, ४. ज्योतिष्क देवागंनाएँ, ५. व्यंतर देवांगनाएँ, ६. भवनवासी देवांगनाएँ, ७. भवनवासी देव, ८. व्यंतर देव, ९. ज्योतिष्क देव, १०. कल्पवासी देव, ११. चक्रवर्ती आदि सभी मनुष्य, १२. सिंह-हिरण-कबूतर आदि सभी पशु-पक्षी।
समवसरण में दिन-रात, उच्च-नीच, धनी-निर्धन आदि किसी भी प्रकार का भेद-भाव नहीं होता है। परस्पर बैर-विरोध भूलकर, आधिव्याधि-उपाधि से रहित, पूर्ण निश्चिंत, निर्भय हो शांत चित्त से सभी दिव्यध्वनि सुनते हैं। यह समवसरण सभा सर्वप्राणी समभाव का अद्वितीय अप्रतिम प्रतीक है।
देवकृत चौदह अतिशयों से सम्पन्न, अष्ट मंगलद्रव्यों से सुशोभित ध्वजाओं सहित तीर्थंकर भगवान का कर्म-योग वश क्षेत्र-काल आदि की योग्यतानुसार विहार भी होता है।
भगवान का श्रीविहार अन्यत्र दुर्लभ, अद्भुत महिमामय होता है। इस समय सभी सभीप्रकार से संतुष्टि का अनुभव करते हैं। भगवान के चरणों से चार अंगुल नीचे देवगण २२५ स्वर्ण कमलों की रचना करते जाते हैं। आगे-आगे धर्म-चक्र चलता है; देव-दुदभी, वाद्य बजते रहते हैं, जय-जयकार की ध्वनि होती रहती है, अष्ट मंगल द्रव्य साथ-साथ चलते हैं, ऋषिगण आदि पीछे-पीछे चलते हैं।
योग-निरोध काल कम शेष रही मनुष्य आयु पर्यंत तीर्थंकर भगवान का योग्यतानुसार इसीप्रकार श्रीविहार और सदुपदेश होता रहता है। ५. निर्वाण कल्याणक : तीर्थंकर भगवान के योग-निरोध समय की
तीर्थंकर भगवान महावीर/१९९