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हो भावी तीर्थंकर 'नमः सिद्धेभ्यः' कहते हुए वस्त्राभूषण का त्यागकर, पंचमुष्टि केशलोंच कर, सदा-सदा के लिए मौन हो आत्म-निमग्न हो जाते हैं। इसप्रकार वे स्वयं दीक्षित हो नग्न, दिगम्बर, सर्व आरम्भ-परिग्रहत्यागी, स्वरूप-साधक साधु / मुनि हो जाते हैं । इंद्रादि सभी मिलकर उनका तप या निष्क्रमण कल्याणक महोत्सव मनाते हैं।
यथावसर भूमिकानुसार विकल्प आने पर उनका विविध स्थानों पर विधिवत् आहार-विहार होता रहता है। निहार तो उन्हें जन्म से ही नहीं था। ४. केवलज्ञान कल्याणक : ज्ञानानन्द-स्वभावी अपने भगवान आत्मा में परिपूर्ण स्थिरता होते ही भावी तीर्थंकर वे मुनिराज अनन्त चतुष्टयसम्पन्न अरहंत हो जाते हैं। चार घाति कर्मों का अभाव होकर उन्हें नव केवल - लब्धि व्यक्त हो जाती हैं। उनका विद्यमान औदारिक शरीर भी सात धातु से रहित परमौदारिक हो जाता है। वे पृथ्वी से पाँच हजार धनुष ऊपर आकाश में चले जाते हैं।
तीर्थंकर प्रकृति का उदय आ जाने से वे तीर्थंकर अरहंत हो जाते हैं; केवलज्ञान संबंधी दश अतिशय प्रगट हो जाते हैं । समस्त देवों के यहाँ अपने-अपने वाद्ययंत्र बजने लगते हैं; इंद्रों के आसन कंपित होने लगते हैं इत्यादि चिंहों से मुनिराज के केवलज्ञान का निर्णयकर इंद्रादि सभी यहाँ पृथ्वी पर आकर उनके केवलज्ञान कल्याणक का महोत्सव मनाते हैं। इंद्र की आज्ञा से कुबेर समवसरण की रचना करता है।
यह समवसरण सभा (भगवान का प्रवचन मंडप ) विश्व की एक अद् -भुत, आश्चर्य कारक, सर्वोत्तम रचना होती है। पृथ्वी से पाँच हजार धनुष ऊपर आकाश में बना होने के कारण इसके चारों ओर नीचे से ऊपर तक बीस-बीस हजार स्वर्णमयी सीढ़िऔँ होती हैं। जो बाल, वृद्ध, लूले, लंगड़े, अंधे आदि सभी के द्वारा अंतर्मुहूर्त में पार कर ली जाती हैं।
धूलिशाल नामक रत्नमय कोट (परकोटा) से घिरे इस समवसरण में सर्वप्रथम चारों दिशाओं में एक-एक मान -स्तम्भ होता है। तत्पश्चात् क्रमशः १. चैत्य भूमि, २. खातिका भूमि, ३. लता भूमि, ४. उपवन भूमि, ५. ध्वजा भूमि, ६. कल्पांग भूमि, ७. गृह भूमि, ८. सद्गण भूमि, ९१०- ११. तीन पीठिका भूमिका - इसप्रकार ग्यारह भूमि होती हैं। • तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २ / १९८