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दिक्कुमारी देविआँ चलती हैं। इंद्राणी भावी-जगद्-गुरु बालक को इंद्र के हाथों में सौंप देती है। ___ हजार नेत्र बनाकर देखने के बाद भी इंद्र बालक का अद्भुत सौन्दर्य देखते हुए संतुष्ट नहीं होता है। बाल तीर्थंकर की स्तुति कर इंद्र उन्हें अपनी गोद में लेकर ऐरावत हाथी पर विराजमान हो सुमेरु पर्वत की ओर जाता है। सौधर्मेंद्र की गोद में भावी त्रिलोकीनाथ हैं। ईशानेंद्र उनके ऊपर धवल वर्ण का छत्र लगाए है । सानत्कुमार और माहेंद्र नामक देवेंद्र उनके ऊपर चँवर ढोरते हैं। शेष सभी इंद्र आदि जय-जयकार करते हुए उनके पीछे चलते हैं।
सुमेरु पर्वत पर पहुँचने के बाद बाल तीर्थंकर को पांडुक शिला के सिंहासन पर विराजमान कर, क्षीर सागर से देवों द्वारा लाए गए १००८ जल कलशों द्वारा एकसाथ उनका अभिषेक होता है। तदनंतर इंद्राणी उन्हें देवोपनीत वस्त्राभूषणों से समलंकृत करती है। पुन: सभी जन्मनगरी में आकर सौधर्मेंद्र उन भावी भगवान को सिंहासन पर विराजमान कर उनके अंगूठे में अमृत भर देता है तथा दाहिने पैर के अंगूठे में दिखाई दिए चिंह को, उनका चिंह घोषित कर देता है। ये बाल तीर्थंकर जन्म से ही दश अतिशय सम्पन्न होते हैं। ___तत्पश्चात् ताण्डव नृत्य आदि अनेकों विक्रियामय आश्चर्यकारी लीलाएँ प्रगट कर जन्मकल्याणक महोत्सव मना, उनकी सेवा में अनेक देव-गणों को रखकर वह सौधर्मेंद्र अपने स्थान पर लौट जाता है। दिक्कुमारी देविआँ भी अपने-अपने स्थान पर चली जाती हैं। ३. तप या निष्क्रमण कल्याणक : राज्य-वैभव के बीच रहते हुए कोई कारण पाकर राजकुमार या राजा भावी तीर्थंकर का चित्त विषय-भोगों से अत्यन्त उदास होते ही ब्रम्ह स्वर्ग से लौकांतिक देव आकर उनके वैराग्य की अनुमोदना/प्रशंसा करते हैं। सौधर्मेंद्र आकर उनका अभिषेक कर, उन्हें वस्त्राभूषणों से अलंकृत कर, कुबेर द्वारा लाई गई पालकी उनके समक्ष रख देता है। भावी भगवान के उसमें विराजमान होते ही इंद्रगण उन्हें आकाशमार्ग से तपोवन में ले जाते हैं। वहाँ एक मणिमयी शिला पर पूर्व या उत्तर की ओर मुख कर विराजमान
- तीर्थंकर भगवान महावीर/१९७ -