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कुंडलगिरी पर रहनेवालीं चूलावनी, मालनिका, नवमालिका, त्रिशिरा, पुष्पचूला, कनकचित्रा, कनकादेवी और वारुणी देवी नामक अष्ट दिक्कन्याएं देवीं आकर माता की सेवा प्रच्छन्न और अप्रच्छन्नरूप में करती हैं। इनके साथ ही कल्पवासी देवेंद्रों की १२ इंद्राणिआँ, भवनवासी देवेंद्रों की २० इंद्राणि, व्यंतर देवेंद्रों की १६ इंद्राणि, ज्योतिष्क देवेंद्रों की २ इंद्राणिआँ और कुलाचल वासिनी श्री, ही, धृति, कीर्ति, बुद्धि, लक्ष्मी नामक छह देवि - कुल ५६ देवांगनाएँ माता की सेवा में सतत तत्पर रहती हैं । इनमें से श्री आदि छह देविआँ तो माता के गर्भशोधन का कार्य करती हैं; शेष सभी अनेक-अनेक प्रकार से उनकी सेवा-सु -सुश्रूषा में लीन रहती हैं।
गर्भ वाले दिन की पूर्वरात्रि में माता सोलह स्वप्न देखती हैं। जिनके फलरूप में तीर्थंकर अवतरण का निश्चय कर माता-पिता अत्यधिक प्रसन्न होते हैं।
विविध निमित्तों से गर्भावतरण को जानकर देवेंद्र आदि भी यहाँ आकर, उस नगरी की प्रदक्षिणा दे, माता-पिता का सम्मान कर गर्भावतरण का महोत्सव मनाते हैं ।
तीर्थंकर माता के शरीर में गर्भ-वृद्धि के कोई भी चिन्ह दिखाई नहीं देते हैं । जग - कल्याण की तीव्र भावनारूप उनके दोहले से ही गर्भ का निश्चय किया जाता है।
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२. जन्म कल्याणक : बाल तीर्थंकर का जन्म होते ही वातावरण में सर्वत्र एक अद्भुत सुख-शांति छा जाती है; देव भवनों व स्वर्गों आदि में स्वयमेव घंटे आदि बजने लगते हैं, इंद्रों के आसन कम्पित हो जाते हैं। बालक के जन्म का निश्चय कर वे जन्मोत्सव मनाने के लिए बड़ी धूमधाम से उस नगर में आते हैं। दिक्कुमारी देविस बालक का जातकर्म करती हैं। कुबेर नगर की अद्भुत शोभा करता है। सौधर्मेंद्र की आज्ञा से शची इंद्राणी प्रसूतिगृह में जाकर, बाल तीर्थंकर और माता की स्तुति कर माता को मायामयी निद्रा में निमग्न कर, उनके पास मायामयी शिशु रख, अति सम्मान पूर्वक अपने हाथों में बाल तीर्थंकर को उठाकर वहाँ से बाहर आती है। इनके आगे छत्र आदि अष्ट मंगल द्रव्य धारण किए • तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २ / १९६ -