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________________ भी व्यर्थ है; तथापि ऐसी कौन-सी लौकिक घटना शेष है, जो उनके अनंत पूर्वभवों में उनके साथ न घटी हो । वे पूर्वभवों में चक्रवर्ती, अर्धचक्रवर्ती भी हुए हैं। अनेकों बार नरक के नारकी तथा अनेकों बार सिंहादि क्रूर पशु भी हुए हैं। अनादि से तो प्रत्येक जीव ही निंगोद में रहा है; परन्तु इस जीव ने तो वहाँ से निकलने के बाद पुन: वहाँ पहुँच कर अनेक भव निगोद में व्यतीत किए हैं। इस युग के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के कुल में, इस युग के प्रथम चक्रवर्ती भरत का पुत्र बन, दिगम्बर दीक्षा लेने के बाद भी प्रथम तीर्थंकर द्वारा प्रतिपादित वस्तु - व्यवस्था का विरोध कर अनन्त दुःख सहन किए हैं। निष्कर्ष यह है कि सभी सांसारिक अनुकूल-प्रतिकूल संयोगों के बीच रहकर भी परलक्षी परिणामों से इस जीव ने एकमात्र दुःख ही दुःख सहन किए हैं। सिंह पर्याय में स्वोन्मुखी वृत्ति द्वारा सम्यक्रत्नत्रय व्यक्त कर आत्मिक उन्नति का क्रम प्रारंभ कर यह जीव क्रमशः बढ़ते-बढ़ते उससे दशवें भव में तीर्थंकर भगवान महावीर वर्धमान हुआ । बालक वर्धमान का जन्म वैशाली गणतंत्र के प्रसिद्ध राजनेता लिच्छवि राजा सिद्धार्थ की रानी प्रियकारिणी त्रिशला के उदर से कुण्डग्राम कुण्डलपुर में हुआ था। उनकी माँ वैशाली गणतंत्र के अध्यक्ष राजा चेटक की प्रथम पुत्री थीं। बालक वर्धमान के गर्भ में आने से पूर्व रात्रि के पिछले प्रहर में शांत चित्त से निद्रावस्था में उन्होंने महान शुभ सूचक सोलह स्वप्न देखे। जिनका फल बताते हुए राजा सिद्धार्थ ने अपनी प्रसन्न मुखाकृति से कहा कि तुम्हारे उदर से तीन लोक के हृदयों पर शासन करने वाले, धर्मतीर्थ के प्रवर्तक, महाभाग्यशाली, भावी तीर्थंकर बालक का जन्म होगा। आषाढ़ शुक्ला षष्ठी के दिन बालक वर्धमान माँ के गर्भ में आए। यह उनका अंतिम गर्भावास था। इंद्रादि ने आकर गर्भकल्याणक मनाया। गर्भकाल पूर्ण होने पर आज (सन् २००८) से लगभग २६०८ वर्ष पूर्व चैत्र शुक्ला त्रयोदशी की शुभ बेला में उनका जन्म हुआ। परिजन, पुरजनों के साथ ही इंद्रादि ने भी उनके जन्म का महा उत्सव किया । जन्म कल्याणक • तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २ /१९०
SR No.007197
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherA B Jain Yuva Federation
Publication Year2008
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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