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________________ पाठ ८: तीर्थंकर भगवान महावीर प्रश्न १:तीर्थंकर परंपरा में तीर्थंकर भगवान महावीर का क्रम स्पष्ट करते हुए उनका जीवन-परिचय लिखिए। उत्तर :स्थाईत्व के साथ परिणमनशील, अनादि-अनंत, अकृत्रिम, स्वत:सिद्ध, सुव्यवस्थित व्यवस्था-सम्पन्न इस विश्व में कर्तृत्व के अहंकार और अपनत्व के ममकार से दूर रहकर स्व और पर को समग्र रूप से जानते हुए आत्म-निमग्नतामय अतीन्द्रिय आनन्द-दशा-सम्पन्न व्यक्तित्व भगवान कहलाता है। __ जिससे संसार-सागर तिरा जाता है, उसे तीर्थ कहते हैं। जो इस तीर्थ को करें अर्थात् संसार-सागर से स्वयं पार उतरें तथा अन्य को भी उतरने का मार्ग बताएं, उन्हें तीर्थंकर कहते हैं। सभी तीर्थंकर तो नियम से भगवान होते ही हैं; परन्तु तीर्थंकर हुए बिना भी भगवान होते हैं। परिवर्तनशील कर्मभूमि वाले भरत-ऐरावत क्षेत्र में २० कोड़ा-कोड़ी सागरवाले एक कल्पकाल में उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी संबंधी २४-२४ तीर्थंकर ही होते हैं। तीर्थंकरों का यह क्रम अनादि से चला आया होने से और अनंत काल पर्यंत चलता रहने वाला होने से भगवान महावीर के तीर्थंकरत्व का क्रमांक सुनिश्चित कर पाना असम्भव है; तथापि इस अवसर्पिणी काल संबंधी भरत क्षेत्र के वे चौबीसवें और अंतिम तीर्थंकर थे। यहाँ उनसे पूर्व उनके समान ही ऋषभादि तेईस तीर्थंकर और भी हो गए हैं। तीर्थंकर महावीर के वर्तमान भव की जीवन-गाथा मात्र इतनी सी ही है कि वे आरम्भ के तीस वर्षों में वैभव और विलास के बीच जल से भिन्न कमलवत् रहे; मध्य के बारह वर्षों में जंगल में परम मंगल की साधना करते हुए एकांत आत्म-आराधना रत रहे और अंतिम तीस वर्षों में प्राणी मात्र के कल्याण-हेतु सर्वोदय धर्म-तीर्थ का प्रवर्तन, प्रचार व प्रसार करते रहे। __ भगवान महावीर का वर्तमान जीवन यद्यपि घटना-बहुल नहीं है। उनके सर्वांगीण विकसित सर्वोत्कृष्ट व्यक्तित्व को घटनाओं में खोजना -तीर्थंकर भगवान महावीर/१८९ -
SR No.007197
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherA B Jain Yuva Federation
Publication Year2008
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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