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________________ जिससे कर्म को बलवान मानने, उन्हें परेशान करने वाला मानने इत्यादि तत्संबंधी विपरीत मान्यताएं नष्ट हो जाती हैं तथा अपना अपराध स्वीकार कर उसे नष्ट करने की दिशा में सम्यक् पुरुषार्थ जागृत हो जाता है। ५. जीव की अनादि-अनंत, शाश्वत सत्ता का भी निर्णय इस प्रकरण को समझने से हो जाता है; जो अंतरोन्मुखी पुरुषार्थ के लिए अत्यन्त आवश्यक है। ६. गुणस्थानानुसार होने वाले औदयिक-भावों की विविध विचित्रता का परिज्ञान भी इससे हो जाता है; जिससे व्यर्थ के राग-द्वेष से बच जाते हैं। ७. गुणस्थानानुसार नियम से होने वाले औदयिक-भाव महिमा-सूचक नहीं हैं; वरन् पुरुषार्थ की कमी के प्रतीक हैं - यह समझ में आ जाने पर अपने या अन्य के उन भावों को देखकर दीनता, हीनता, घमंड आदि का भाव नष्ट हो जाने से व्यक्तिवाद को बढ़ावा देने वाली दुष्प्रवृत्तिआँ नष्ट हो जाती हैं; जिससे अंतर्बाह्य वातावरण में सहज शांति-सामंजस्य बना रहता है। ८. गुणस्थानों का परिज्ञान होने से अपनी आत्मोन्मुखी वृत्ति बनाने हेतु जीवन सहज, शुद्ध, सात्त्विक, न्याय-नीति-सम्पन्न, तनावरहित, निर्भार हो जाता है। ९. गुणस्थानों का स्वरूप समझ में आ जाने पर अनादि संसार से लेकर सिद्ध दशा पर्यंत का पथ समग्र दृष्टिओं से अत्यंत स्पष्टतया दृष्टिगोचर होने लगता है; जिससे सम्पूर्ण वाद-विवादों से पार हो, निश्शंकतया आत्मस्थिर रहने का पुरुषार्थ जागृत होता है। १०. इतना सूक्ष्म, सुव्यवस्थित विवेचन करनेवाले सर्वज्ञ-प्रणीत जैनधर्म की महिमा भी ऐसे प्रकरणों को समझने से वृद्धिंगत होती है। सर्वज्ञ की महिमा से अपने सर्वज्ञ-स्वभाव का भी बोध होता है; जिससे सहज ही अन्य की महिमा नष्ट होकर दृष्टि स्वभाव-सन्मुख होने से जीवन अतीन्द्रिय आनंदमय सम्यक् रत्नत्रय-सम्पन्न हो जाता है। इत्यादि अनेकानेक लाभ इस प्रकरण को समझने से प्राप्त होते हैं।० -- तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २/१८८ -
SR No.007197
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherA B Jain Yuva Federation
Publication Year2008
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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